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याज्ञवल्क्य ने कहा - अरे मैत्रेयी! यह निश्चय है कि पति के प्रयोजन के लिए पति स्त्री को प्रिय नहीं होता, अपने प्रयोजन के लिए ही पति प्रिय होता है। स्त्री के प्रयोजन के लिए स्त्री प्रिया नहीं होती, अपने प्रयोजन के लिये ही स्त्री प्रिया होती है।पुत्रों के प्रयोजन के लिये पुत्र प्रिय नहीं होते, अपने प्रयोजन के लिये ही पुत्र प्रिय होते हैं। धन के प्रयोजन के लिये धन प्रिय नहीं होता, अपने ही प्रयोजन के लिये धन प्रिय होता है। ब्राह्मण, क्षत्रि, वैश्य, छुद्र के प्रयोजन के लिये ब्राह्मण, क्षत्रि, वैश्य, छुद्र प्रिय नहीं होते हैं, अपने प्रयोजन के लिये ही ब्राह्मण, क्षत्रि, वैश्य, छुद्र प्रिय होते हैं। देवताओं के प्रयोजन के लिये देवता प्रिय नहीं होते; अपने प्रयोजन के लिये ही देवता प्रिय होते हैं। प्राणियों के प्रयोजन के लिये प्राणी प्रिय नहीं होते बल्कि अपने ही प्रयोजन के लिये प्राणी प्रिय होते हैं। हे मैत्रेयी! सब इसी प्रकार अपने-अपने प्रयोजन के लिये ही एक दूसरे को प्यार का अभिनय करते हैं। सब के प्रयोजन के लिये सब प्रिय नहीं होते, बल्कि अपने ही प्रयोजन के लिये सब प्रिय होते हैं। अरी मैत्रेयी! यह आत्मा अपना आप ही दर्शनीय, श्रवणीय, मननीय और ध्यान किये जाने योग्य है। मैत्रेयी! इस आत्मा के ही दर्शन, श्रवण, मनन एवं विज्ञान से ही जीव अखण्डानन्द को प्राप्त होता है। आत्मज्ञान के अतिरिक्त मुक्ति पाने का अन्य कोई मार्ग नहीं है।

वेदान्त केशरी स्वामी निरंजनजी महाराजबृहदारण्यकोपनिषद् - द्वितीय अध्याय - चतुर्थ ब्राह्मण - याज्ञवल्क्य-मैत्रेयी संबाद

ଯାଜ୍ଞବଲ୍କ୍ୟ କହିଲେ — ହେ ମୈତ୍ରେୟୀ! ଏହା ନିଶ୍ଚିତ, ପତିଙ୍କ କାରଣରେ ପତି ସ୍ତ୍ରୀଙ୍କୁ ପ୍ରିୟ ନୁହେଁ, କିନ୍ତୁ ନିଜ କାରଣରେହି ପତି ପ୍ରିୟ ହୁଅନ୍ତି। ସ୍ତ୍ରୀଙ୍କ କାରଣରେ ସ୍ତ୍ରୀ ପ୍ରିୟ ନୁହେଁ, ନିଜ କାରଣରେହି ସ୍ତ୍ରୀ ପ୍ରିୟ ହୁଅନ୍ତି। ପୁତ୍ରମାନଙ୍କ କାରଣରେ ପୁତ୍ର ପ୍ରିୟ ନୁହାନ୍ତି, ନିଜ କାରଣରେହି ପୁତ୍ର ପ୍ରିୟ ହୁଅନ୍ତି। ଧନର କାରଣରେ ଧନ ପ୍ରିୟ ନୁହେଁ, ନିଜ କାରଣରେହି ଧନ ପ୍ରିୟ ହୁଏ। ବ୍ରାହ୍ମଣ, କ୍ଷତ୍ରି, ବୈଶ୍ୟ, ଶୂଦ୍ରଙ୍କ କାରଣରେ ସେମାନେ ପ୍ରିୟ ନୁହନ୍ତି, କିନ୍ତୁ ନିଜ କାରଣରେହି ସେମାନେ ପ୍ରିୟ ହୁଅନ୍ତି। ଦେବତାମାନଙ୍କ କାରଣରେ ଦେବତା ପ୍ରିୟ ନୁହନ୍ତି; ନିଜ କାରଣରେହି ଦେବତା ପ୍ରିୟ ହୁଅନ୍ତି। ପ୍ରାଣୀମାନଙ୍କ କାରଣରେ ପ୍ରାଣୀ ପ୍ରିୟ ନୁହନ୍ତି, ବରଂ ନିଜ କାରଣରେହି ପ୍ରାଣୀ ପ୍ରିୟ ହୁଅନ୍ତି।ହେ ମୈତ୍ରେୟୀ! ସମସ୍ତେ ଏଭଳି ନିଜ-ନିଜ କାରଣରେହି ଏକୁ ଆରେକ ପ୍ରତି ପ୍ରେମର ଅଭିନୟ କରନ୍ତି। ସବୁଙ୍କ କାରଣରେ ସବୁ ପ୍ରିୟ ନୁହନ୍ତି; ନିଜ କାରଣରେହି ସବୁ ପ୍ରିୟ ହୁଅନ୍ତି।ହେ ମୈତ୍ରେୟୀ! ଏହି ଆତ୍ମା — ସ୍ୱୟଂ ଦର୍ଶନୀୟ, ଶ୍ରବଣୀୟ, ମନନୀୟ ଓ ଧ୍ୟାନନୀୟ। ମୈତ୍ରେୟୀ! ଏହି ଆତ୍ମାଙ୍କ ଦର୍ଶନ, ଶ୍ରବଣ, ମନନ ଓ ବିଜ୍ଞାନରୁହି ଜୀବ ଅଖଣ୍ଡ ଆନନ୍ଦକୁ ପ୍ରାପ୍ତ କରେ। ଆତ୍ମଜ୍ଞାନ ବ୍ୟତୀତ ମୁକ୍ତି ପାଇବାର ଅନ୍ୟ କୌଣସି ପଥ ନାହିଁ।

ବେଦାନ୍ତ କେଶରୀ ସ୍ୱାମୀ ନିରଞ୍ଜନଜୀ ମହାରାଜ

ବୃହଦାରଣ୍ୟକୋପନିଷଦ୍- ଦ୍ୱିତୀୟ ଅଧ୍ୟାୟ – ଚତୁର୍ଥ ବ୍ରାହ୍ମଣ - ଯାଜ୍ଞବଲ୍କ୍ୟ–ମୈତ୍ରେୟୀ ସମ୍ବାଦ

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