वेदान्त केशरी स्वामी निरंजनजी महाराजजाबालदर्शन उपनिषद्
प्रथम खण्ड
जो मनुष्य ज्ञान शौच 'मैं ब्रह्म हूँ' इस भाव का परित्याग करके गंगा, यमुना, बद्रि केदारादि बाह्य शौच में ही रमा रहता है, वह मूढ़ स्वर्ण को त्याग कर मिट्टी के ढेले का संग्रह करता है।
ବେଦାନ୍ତ କେଶରୀ ସ୍ୱାମୀ ନିରଞ୍ଜନଜୀ ମହାରାଜଜାବାଳଦର୍ଶନ ଉପନିଷଦ୍
ପ୍ରଥମ ଖଣ୍ଡ
ଯିଏ "ମୁଁ ବ୍ରହ୍ମ" — ଏହି ଆତ୍ମଜ୍ଞାନକୁ ଛାଡ଼ି, ଗଙ୍ଗା, ଯମୁନା କିମ୍ବା ବଦ୍ରି-କେଦାର ପରି ପବିତ୍ର ସ୍ଥାନରେ କେବଳ ବାହାରୁ ସ୍ନାନ-ଶୌଚରେ ମନ ଲଗାଇ ରହେ, ସିଏ ସୁନାକୁ ଛାଡ଼ି ମାଟିର ଢେଲା ସଂଗ୍ରହ କରୁଥିବା ଏକ ମୂଢ଼ ସମାନ।
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