जो इस आत्मतीर्थ अर्थात् अपने शरीर के भीतर रहने वाले साक्षी परमात्मा का परित्याग करके बाहर के तीर्थों में भटकता रहता है, वह हाथ में रखे हुए बहुमुल्य रत्न को त्याग कर काँच खोजता फिरता है।योगी पुरुष अपने आत्म तीर्थ में अधिक विश्वास और श्रद्धा रखने के कारण जल से भरे तीर्थों और काष्ठ आदि से निर्मित देव प्रतिमाओं की शरण नहीं लेते। बाह्य तीर्थ से श्रेष्ठ आन्तरिक तीर्थ ही है। आत्मतीर्थ ही महातीर्थ है। उसके सामने दूसरे तीर्थ निरर्थक हैं।
— वेदान्त केशरी स्वामी निरंजनजी महाराज
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