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एपिसोड 60 — श्रीनृसिंहोत्तर तापनीय उपनिषद् - नवम खण्ड | स्वामी निरंजनजी पॉडकास्ट विद् साम योगी - September 24, 2025

ॐ यह अक्षर (अविनाशी परमात्मा) है। यह सम्पूर्ण दृश्यमान जगत् इन परमात्मस्वरूप ॐकार की ही उपव्याक्षा — महिमा का विस्तार है, अतीत, वर्तमान और अनागत — इन तीनों काल में होने वाला यह सारा जगत् ॐकार ही है। तथा इन तीनों काल से जो अतीत एवं जगत् से भिन्न कोई तत्त्व है, वह भी यह प्रणव ॐकार ही है। निश्चय ही यह सब कुछ ब्रह्म है। तथा इस आत्मा की 'ओम्' इस नाम से अभिहित ब्रह्म के साथ एकता है और यह आत्मा भी ब्रह्म है।

उपद्रष्टा अर्थात् अपने समीप से समीप रहकर देखने वाला साक्षी तथा अनुमन्ता याने अपने में ही अध्यस्त प्राण और बुद्धि आदि को संनिधानमात्र केवल अनुमति देनेवाला यह आत्मा 'सिंह' अर्थात् बन्धन नाशक परमात्मा ही है, चित्स्वरूप ही है, निर्विकार है और सर्वत्र साक्षीमात्र है। अतएव द्वैत की सिद्धि नहीं होती; केवल आत्मा ही सिद्ध होता है। एकमात्र आत्मा की ही सत्ता प्रमाणित होती है एवं अनुभव में आती है। आत्मा अद्वितीय है‌। उससे भिन्न किसी दूसरे वस्तु की सत्ता नहीं है। माया से ही अन्य वस्तु की प्रतीति-सी होती है। निश्चय ही वह उपद्रष्टा अनुमन्ता रूप से बताया गया, यह आत्मा साक्षात् परमात्मा ही है।

— वेदान्त केशरी स्वामी निरंजनजी महाराज

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