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Description

"उस दौर में कृश्न चन्दर ने भी एक फिल्म बनाई अपने नाटक 'सराय के बाहर' के आधार पर। खुद ही उसका निर्देशन भी किया। प्रसिद्ध प्रगतिशील कवि हरिंद्रनाथ चट्टोपाध्याय के एक उपासक ने 'आजादी' नामक एक आदर्शवादी फिल्म बनाने के लिए अपनी सारी पूंजी उनके कदमों में ला कर रख दी।

उपर्युक्त उदाहरण से अच्छा सबूत क्या हो सकता है कि फिल्मी इतिहास के उस मोड़ पर हमारे बुद्धिजीवी वर्ग को उच्च स्तर की फिल्में बनाने के लिए सहूलतों की कमी नहीं थी, बल्कि सहूलतें खुद उनके कदमों में आ रही थीं। अगर उनका फायदा उठाने की योग्यता उनमें होती तो आज हिंदी फिल्मों का स्तर कुछ और ही होता।

पर उस वर्ग ने न फिल्म के माध्यम की विशेष आवश्यकताओं को समझने की कोशिश की और ना ही अपने व्यक्तिगत जीवन को किसी सीमा में रखा। उनकी बनाई हर फिल्म ने जनता की आशाओं पर पानी फेर दिया। सिर्फ यही नहीं, वे लोग अपनी गलत हरकतों के कारण उतने ही बदनाम हुए, जितना कि वे अपनी कहानियों में फिल्मी सेठों को करते थे।

आज जब भी मैं अपने बुद्धिजीवी मित्रों को जनता के घटिया स्तर और निर्माताओं की जाहिलाना किस्म की मांगों को दोष देते हुए पाता हूं, तो मेरा मन रोष से भर जाता है, क्योंकि मैंने अच्छे से अच्छे अवसरों को बर्बाद होते अपनी आंखों से देखा है।"

~ बलराज साहनी (मेरी फ़िल्मी आत्मकथा)

Narrator, Producer and Cover Designer : Irfan