"मेरी सेहत बहुत गिरी हुई थी। डॉक्टर ने मुझे कश्मीर जाने की सलाह दी। वहां भी हालात बहुत हंगामी थे लेकिन सांप्रदायिकता का कहीं नामोनिशान तक न था। महाराज हरि सिंह का दमनचक्र जोरों से चल रहा था। शेख अब्दुल्ला, सादिक, डीपी धर और कई अन्य नेता जेल में थे। जिनके कारण जनता में बहुत बेचैनी थी। कई राजनीतिक कर्मचारी रूपोश होकर बगावत फैला रहे थे और इस नेक काम में पुलिस तक उनकी मददगार थी।
एक खुफिया अड्डे पर मेरी मुलाकात कश्मीर के महान मजदूर कवि अब्दुससितार 'आसी' से हुई। रोजी कमाने के लिए वे एक आढ़ती की दुकान पर बोरियां ढोया करते थे। यह भी मेरी एक अमिट याद है. मैं मुंबई से आया था जहां कम्युनिस्ट पार्टी का केंद्र था। इसीलिए श्रीनगर के कॉमरेड मुझे जरूरत से ज्यादा महत्व दे रहे थे। मैं भी अपनी शान बनाने की कोशिश करता। हालांकि मेरी राजनीतिक सूझबूझ उनके मुकाबले में कम थी।
घर के वातावरण और गवर्नमेंट कॉलेज लाहौर की शिक्षा दोनों ने मुझे अंतर्मुखी बना दिया था। बड़ी से बड़ी घटनाओं की ओर से भी आंखें मूंदे रखना मेरी आदत बनी हुई थी। अपने इस रोग का इलाज मैं मार्क्सवादी ज्ञान की सहायता से भी न कर सका। कठिनाइयों में मेरी सोच की शक्ति डांवाडोल हो जाती है। मेरी ज़हनियत उस बंदर जैसी है जो आग से छेड़खानी करने से बाज नहीं आता और हाथ जलने पर भाग भी उठता है।
काफी हद तक यही कमजोरी मेरे समकालीन साहित्यकारों और कलाकारों की भी कही जा सकती है। सन 1947 की मौत की आंधी हमारे सिर ऊपर से होकर गुजर गई लेकिन उसके आधार पर हम न कोई बढ़िया फिल्म बना सके और न ही उस भावुकता से ऊपर उठकर साहित्य में उसका अमिट चित्रण ही कर पाए।"
~ बलराज साहनी, मेरी फिल्मी आत्मकथा
(प्रसिद्ध अभिनेता और लेखक बलराज साहनी ने अपनी किताब 'मेरी फ़िल्मी आत्मकथा' अपनी मृत्यु से एक साल पहले यानी 1972 पूरी की थी। यह सबसे पहले अमृत राय द्वारा सम्पादित पत्रिका 'नई कहानियां' में धारावाहिक रूप से प्रकाशित हुई। फिर उनके जीवन काल में ही यह पंजाबी की प्रसिद्ध पत्रिका प्रीतलड़ी में भी यह धारावाहिक ढंग से छपी।
1974 में जब यह किताब की शक्ल में आई तो फिल्म प्रेमियों और सामान्य पाठकों ने इसे हाथों हाथ लिया।)
Narrator, Producer and Cover Designer : Irfan