"नाबालिग बच्चे का अकेले काम पर जाना ठीक नहीं समझा जाता। उसके साथ घर के किसी न किसी व्यक्ति का जाना जरूरी है। परीक्षित के साथ स्टूडियो जाने में मेरे स्वाभिमान को चोट पहुंचती थी। इस प्रकार मैं लोगों की नजरों में बच्चे से काम कराने वाला बेरोजगार बाप बन जाता। परीक्षित को तो मैंने मर्द बनने के लिए मना लिया था। लेकिन मैं खुद मर्दानगी से परिस्थितियों का मुकाबला करने लायक न बन सका। मैंने यह सोचकर खुद को तसल्ली दे दी कि नितिन बोस और दिलीप कुमार परीक्षित को अपने बच्चों की तरह समझते हैं और उसका पूरा ख्याल रखते होंगे।
मैं यह भी देखता था कि स्टूडियो से लौटने पर परीक्षित हमेशा खुश नजर आता था। एक दिन मैं मोटरसाइकिल पर सेंट्रल स्टूडियो के सामने से गुजर रहा था कि परीक्षित से मिलने अंदर चला गया बड़ा। डरावना दृश्य था वह, जिसकी शूटिंग की जा रही थी। एकदम अंधेरी रात, आंधी तूफान, वीरान जंगल और परीक्षित एक बेसहारा मासूम बच्चे के रूप में भटक रहा है। वह चीखता चिल्लाता है, पर कोई उसकी मदद के लिए नहीं आता। एकाएक एक पेड़ की मोटी टहनी उसके सिर पर आकर गिरती है। लालटेन गिरकर बुझ जाती है। यानी बच्चा हमेशा के लिए अंधा हो गया है।"
~ बलराज साहनी, मेरी फ़िल्मी आत्मकथा
(प्रसिद्ध अभिनेता और लेखक बलराज साहनी ने अपनी किताब 'मेरी फ़िल्मी आत्मकथा' अपनी मृत्यु से एक साल पहले यानी 1972 पूरी की थी। यह सबसे पहले अमृत राय द्वारा सम्पादित पत्रिका 'नई कहानियां' में धारावाहिक रूप से प्रकाशित हुई। फिर उनके जीवन काल में ही यह पंजाबी की प्रसिद्ध पत्रिका प्रीतलड़ी में भी यह धारावाहिक ढंग से छपी।
1974 में जब यह किताब की शक्ल में आई तो फिल्म प्रेमियों और सामान्य पाठकों ने इसे हाथों हाथ लिया।)
Narrator, Producer and Cover Designer : Irfan