"पर इसके उलट एक और भी प्रवृत्ति मेरे भीतर से सिर निकाल चुकी थी हार ना मानने की अपने लक्ष्य पर पहुंच कर ही दम लेने की। मेरे इस व्यक्तिवादी रवैये को जीवन में बहुत ही सख्त चोटें भी लगी थीं। ऐसा होना स्वाभाविक था। और जख्मी हालत में जब मैं अपने चारों तरफ देखता था तो पता चलता था कि सारा संसार ही दुखी है।
मेरे अंदर अपने दुख को दूसरों के दुखों के साथ साझा करने की भावना और मानवता के साथ गहरा रिश्ता जोड़ने की कामना प्रतिदिन प्रबल होती जा रही थी। व्यक्तिवाद और समष्टिवाद का यह द्वंद्व मेरे जीवन में सदा रहा है। इसने मेरी सहायता भी की है और मेरा रास्ता भी रोका है।
यही विरोध मैंने अपनी पीढ़ी के लगभग सभी साहित्यकारों और कलाकारों में देखा है।
जब से होश संभाला है मैं जनता के साथ घुलना मिलना भी चाहता हूं पर जनता से शरमाता भी हूं। ना पूरी तरह व्यक्तिवाद में ही सुखी हूं और ना ही समष्टिवाद में। मैं देश कल्याण के कार्यों में भी हिस्सा लेता रहा हूं पर अपने स्वार्थ को भी नहीं छोड़ा। मैं उस बंदर की तरह हूं जो आग से डरता भी है और आग से खेलने से बाज़ भी नहीं आता।"
-बलराज साहनी, अभिनेता (मेरी फिल्मी आत्मकथा में)
(बलराज साहनी की किताब 'मेरी फ़िल्मी आत्मकथा' सबसे पहले अमृत राय द्वारा सम्पादित पत्रिका 'नई कहानियां' में धारावाहिक रूप से प्रकाशित हुई।
बलराज जी के जीवन काल में ही यह पंजाबी की प्रसिद्ध पत्रिका प्रीतलड़ी में भी यह धारावाहिक ढंग से छपी।
1974 में जब यह किताब की शक्ल में आई तो फिल्म प्रेमियों और सामान्य पाठकों ने इसे हाथों हाथ लिया।)
Cover Art: Irfan