"पर हम इतनी ज्यादा आत्मग्लानि के शिकार भी नहीं थे। गांधीजी के प्रति हमारी श्रद्धा इतनी गहरी थी कि उसका उल्लेख नहीं किया जा सकता। ख़ासकर दम्मो को तो बापू, कस्तूरबा, आशादी और आर्यन दा से बेहद प्यार मिला था। पर गांधीवाद पर से हमारा विश्वास काफी हद तक उठ गया था।
यह ठीक है कि हम अपने देश की आजादी के लिए लड़े नहीं थे, जेलों में नहीं गए थे, पर अनगिनत रातें हमने बमों की बारिश के नीचे गुजारी थीं। हमने मौत के भयानक वातावरण में दिन बिताए थे। हमने चार साल उस यूरोप में गुजारे थे जहां लाखों करोड़ों लोग युद्ध के शिकार हुए थे, और जहां नाजियों ने निर्दोष यहूदियों की चमड़ियों के लैम्पों के सेट बनाकर पैशाचिकता का नया रिकॉर्ड कायम किया था।
हमें विश्वास हो गया था कि वर्तमान युग की क्रांतिकारी विचारधारा गांधीवाद के बजाय मार्क्सवाद है। सिर्फ मार्क्सवाद। और यह विश्वास आज तक मजबूत ही होता आया है।
कला और साहित्य में यथार्थवाद की शिक्षा मुझे कॉलेज में अंग्रेजी साहित्य के अध्ययन से मिली थी। मैंने उनके इतिहास का अध्ययन करते हुए यह बात जानी थी कि यूरोप में यथार्थवाद से पहले के युग की कला में लंबाई चौड़ाई तो होती थी, पर गहराई नहीं होती थी, जो कला का तीसरा आयाम है। रेनेसां कला में तीसरा आयाम लाया था।
यथार्थवाद की विशेषता है कि वह कला में तीसरा आयाम लाता है। मैंने अपने स्टेज और फिल्म के अभिनय में यही तीसरा आयाम लाने का प्रयास किया है। कलाकार के लिए यह सबसे मुश्किल रास्ता है, और इसी में सृजन का असली आनंद अनुभव किया जा सकता है।
कलाकार किसी पात्र का रोल करते हुए उसे कुछ इस तरह सजीव ढंग से दर्शकों के सामने पेश करना चाहता है, कि वह पात्र सपाट लगने के बजाय, हर कदम पर गहरा और नया बनता हुआ प्रतीत हो।
~ बलराज साहनी, मेरी फ़िल्मी आत्मकथा
Recorded, Produced and Curated by Irfan
Cover Art: Irfan