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Shoonya Theatre group presents Mayank's "कप्लानि", in this unique and creative art project we try to explore possibilities of Hindi poem/stiry through sound ,music and power of narration.
"कपलानी"
पहाड़ों में बसा एक छोटा सा गाँव ..... बादलों के बीच लुकाछिपी खेलता , टिम-टिमाते तारों की छाओं में सोता ....कभी साफ़ आसमान दूर तक धूप में चमकते सुनहरे बर्फ से ढके विशाल पहाड़ तो कभी घनी ठिठुरा देने वाली धुंध ।
शहर की हल-चल से दूर ......शांत ..... | झरने से गिरते पानी की कलकलहाट ......... दूर कहीं चारा चरती गाए के गले में बंधी घंटी की रुक रुक कर आती टनटनाहट। ऐसा सुकून जो मन को पल भर में शांत करदे ।
यहाँ कभी ही कोई भूले भटके सैलानी आया होगा , जो भी आया इस गाँव का होकर रह गया ।
हलाकि सबसे पास का रेलवे स्टेशन ऐसा कोई खासा दूर नहीं मगर स्टेशन से उतर कर 10 किलोमीटर की चढ़ाई हर किसी के बस की बात कहाँ और इतनी दूर दराज़ जगह में कौन जाना पसंद करेगा।
शंकर और विष्णु इसी गाँव के दो लड़के हर दिन स्कूल के बाद स्टेशन पर जाकर आती जाती रेल गाड़ियों को घंटों देखा करते ..... यात्रियों को.....उनके चमकदार सूट -बूट .... सिल्वर रंग की चमचमाती घड़ियों की तरफ आकर्षित होते। विष्णु अखबार बेच और शंकर जूते चमका घर के लिए कुछ पैसे भी कमाते । इस स्टेशन पर कभी कभार ही कोई ट्रैन ठहरती , दोनों के मन में हमेशा ये जिज्ञासा रहती की आखिर ये बने-ठणे लोग कहाँ से आते हैं और इतनी जल्दी में कहाँ निकल जाते हैं ,ना खाने का समय ना रुक कर बात करने की फुर्सत ,जो मन में आया खाया जो मन आया खरीदा ।
"इनके गाँव कैसे होते होंगे क्या वहां भी झरने बहते होंगे "..... ऐसे स्वाभाविक सवाल भला दोनों के छोटे से मन में कैसे ना उठते | 6 बजे की आखिरी ट्रैन "दून एक्सप्रेस" के चले जाने के बाद घर के रास्ते में दोनों अक्सर शहर की बातें किया करते वहां के कपड़ों , लज़ीज़ पकवानों के सपने देखा करते।
सोमवार की बात थी हर शाम की तरह विष्णु और शंकर स्टेशन पर बैठे आखिरी ट्रैन दून एक्सप्रेस का इंतज़ार कर रहे थे। ट्रैन आयी स्टेशन पर रुकी , कुछ यात्री उतरे कुछ अपनी सीट से ही सामान लेने लगे। शंकर और विष्णु भी हर दिन की तरह अपने काम में जुट गए। महेश एक नौजवान... उसकी उम्र यही कोई 23 साल की होगी हलकी दाढ़ी ... बड़ा सा बेग कंधे पर लिए स्टेशन पर उतरा उसने कहीं पढ़ा था कप्लानि के बारे में। देखने में अच्छे घर का ही लगता था मगर ना उसके पास चमकीली घड़ी थी ना ही रोबदार जूते।
ट्रैन के चले जाने के बाद विष्णु और शंकर ने महेश को घेर लिया "भैया आपकी ट्रैन छूट गयी " महेश दोनों के पास घुटने पर बैठते हुए बोला "नहीं मेरे दोस्तों दोस्तों छूटी नहीं मै कप्लानि ही आया हूँ "। दोनों हैरान थे और खुश भी ना जाने कितने सालों बाद कोई शहर से यहाँ आया होगा। तीनो गाँव के लम्बे रास्ते की और बढ़ चले।
पूरे रास्ते दोनों महेश से शहर के बारे में अनेकों प्रशन पूछते रहे ..... वहाँ के घरों के बारे में .... चमकीली घड़ी के बारे में .... गोल्डन चॉकलेट के बारे में ..... स्वादिष्ट खाने के बारे में और महेश बिलकुल सहज मन से दोनों का जवाब देता चला गया और धीरे धीरे पहाड़ों की मन्त्रमुघ्द करने वाली सुंदरता में खोता चला गया।