सोचिए वो कौन सी दृष्टि थी, जिससे सूरदास या रवींद्र जैन, न सिर्फ इतनी खूबसूरत चीज़ें देख लेते थे, बल्कि उन्हें अपने गीतों, अपनी धुनों में सजा भी लेते थे? ऐसे कि उनके गीतों को पढ़ने वाले, उनकी धुनों को सुनने वाले भी ये सब जस का तस देख पाते थे. महसूस कर पाते थे, रवींद्र जैन. 28 फरवरी, 1944 को अलीगढ़ में जन्मे. आंखें यूं बंद थीं कि चीरा लगाना पड़ा. आंखें तो दिखने लग गईं लेकिन आंखों से कुछ न दिखा. डॉक्टर बोले कि शायद बाद में दिखाई दे. उम्मीद है. रवींद्र जैन ने एक बार बताया था-मैं ईश्वर का शुक्रगुज़ार हूं, उसने मेरी आंखों की बजाय मेरा दिमाग रौशन किया है, पिता एक जैन पंडित थे. पण्डित इन्द्रमणि जैन. वैद्य थे. रवींद्र को एक छोटा हारमोनियम खरीद कर दिया. रवींद्र को अपने साथ मंदिर लेकर जाते. रवींद्र पहले तो ये भजन सीखते, फिर धीरे-धीरे गाने भी लगे. इन्द्रमणि एक रुपया देते. उस वक्त के हिसाब से बहुत बड़ी धनराशि। सुनिए पूरी कहानी का PODCAST अनूप आकाश वर्मा के साथ।
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