उस दिन जब मेरे मकान के सामने सड़क की दूसरी तरफ एक पान की दुकान खुली तो मैं बाग-बाग हो उठा। इधर एक फर्लांग तक पान की कोई दुकान न थी और मुझे सड़क के मोड़ तक कई चक्कर करने पड़ते थे। कभी वहां कई-कई मिनट तक दुकान के सामने खड़ा रहना पड़ता था। चौराहा है, गाहकों की हरदम भीड़ रहती है। यह इन्तजार मुझको बहुत बुरा लगता थां पान की लत मुझे कब पड़ी, और कैसे पड़ी, यह तो अब याद नहीं आता लेकिन अगर कोई बना-बनाकर गिलौरियां देता जाय तो शायद मैं कभी इन्कार न करूं। आमदनी का बड़ा हिस्सा नहीं तो छोटा हिस्सा जरूर पान की भेंट चढ़ जाता है। कई बार इरादा किया कि पानदान खरीद लूं लेकिन पानदान खरीदना कोई खला जी का घर नहीं और फिर मेरे लिए तो हाथी खरीदने से किसी तरह कम नहीं है। और मान लो जान पर खेलकर एक बार खरीद लूं तो पानदान कोई परी की थैली तो नहीं कि इधर इच्छा हुई और गिलोरियां निकल पड़ीं। बाजार से पान लाना, दिन में पांच बार फेरना, पानी से तर करना, सड़े हुए टुकड़ों को तराश्कर अलग करना क्या कोई आसान काम है! मैंने बड़े घरों की औरतों को हमेशा पानदान की देखभाल और प्रबन्ध में ही व्यस्त पाया है। इतना सरदर्द उठाने की क्षमता होती तो आज मैं भी आदमी होता। और अगर किसी तहर यह मुश्किल भी हल हो जाय तो सुपाड़ी कौन काटे? यहां तो सरौते की सूरत देखते ही कंपकंपी छूटने लगती है। जब कभी ऐसी ही कोई जरूरत आ पड़ी, जिसे टाला नहीं जा सकता, तो सिल पर बट्टे से तोड़ लिया करता हूं लेकिन सरौते से काम लूं यह गैर-मुमकिन। मुझे तो किसी को सुपाड़ी काटते देखकर उतना ही आश्चर्य होता है जितना किसी को तलवार की धार पर नाचते देखकर। और मान लो यह मामला भी किसी तरह हल हो जाय, तो आखिरी मंजिल कौन फतह करे। कत्था और चूना बराबर लगाना क्या कोई आसान काम है? कम से कम मुझे तो उसका ढंग नहीं आता। जब इस मामले में वे लोग रोज गलतियां करते हैं तो इस कला में दक्ष हैं तो मैं भला किस खेत की मूली हूं। तमोली ने अगर चूना ज्यादा कर दिया ता कत्था और ले लिया, उस पर उसे एक डांट भी बतायी, आंसू पूंछ गये। मुसीबत का सामना तो उस वक्त हो होता है, जब किसी दोस्त के घर जायँ। पान अन्दर से आयी तो इसके सिवाय कि जान-बूझकर मक्खी निगलें, समझ-बूझकर जहर का घूंट गले से नीचे उतारें और चारा ही क्या है। शिकायत नहीं कर सकते, सभ्यता बाधक होती है। कभी-कभी पान मुंह में डालते ही ऐसा मालूम होता है, कि जीभ पर कोई चिनगारी पड़ गयी, गले से लेकर छाती तक किसी ने पारा गरम करके उड़ेल दिया, मगर घुटकर रह जाना पड़ता है। अन्दाजे में इस हद तक गलती हो जाय यह तो समझ में आने वाली बात नहीं। मैं लाख अनाड़ी हूं लेकिन कभी इतना ज्यादा चूना नहीं डालता,हां दो-चार छाले पड़ जाते हैं। तो मैं समझता हूं, यही अन्त:पुर के कोप की अभिव्यक्ति है। आखिर वह आपकी ज्यादतियों का प्रोटेस्ट क्यों कर करें। खामोश बायकाट से आप राजी नहीं होते, दूसरा कोई हथियार उनके हाथ में है नही। भंवों की कमान और बरौनियों का नेजा और मुस्कराहट का तीर उस वक्त बिलकुल कोई असर नहीं करते जब आप आंखें लाल किये, आस्तीनें समेटे इसलिए आसमान सर पर उठा लेते हैं कि नाश्ता और पहले क्यों नहीं तैयार हुआ, तब सालन में नमक और पान में चूना ज्यादा कर देने के सिवाय बदला लेने का उनके हाथ में और क्या साधन रह जाता है।