उस बरगद के पेड़ की तरफ़ दौड़ा जिसकी सुहानी छाया में हमने बचपन के मज़े लूटे थे, जो हमारे बचपन का हिण्डोला और ज़वानी की आरामगाह था। इस प्यारे बरगद को देखते ही रोना-सा आने लगा और ऐसी हसरतभरी, तड़पाने वाली और दर्दनाक यादें ताज़ी हो गयीं कि घण्टों ज़मीन पर बैठकर रोता रहा। यही प्यारा बरगद है जिसकी फुनगियों पर हम चढ़ जाते थे, जिसकी जटाएँ हमारा झूला थीं और जिसके फल हमें सारी दुनिया की मिठाइयों से ज़्यादा मज़ेदार और मीठे मालूम होते थे। वह मेरे गले में बाँहें डालकर खेलने वाले हमजोली जो कभी रूठते थे, कभी मनाते थे, वह कहाँ गये? आह, मैं बेघरबार मुसाफ़िर क्या अब अकेला हूँ? क्या मेरा कोर्ई साथी नहीं। इस बरगद के पास अब थाना और पेड़ के नीचे एक कुर्सी पर कोई लाल पगड़ी बाँधे बैठा हुआ था। उसके आसपास दस-बीस और लाल पगड़ीवाले हाथ बाँधे खड़े थे और एक अधनंगा अकाल का मारा आदमी जिस पर अभी-अभी चाबुकों की बौछार हुई थी, पड़ा सिसक रहा था। मुझे ख़याल आया, यह मेरा प्यारा देश नहीं है, यह कोई और देश है, यह योरप है, अमरीका है, मगर मेरा प्यारा देश नहीं है, हरगिज़ नहीं।
इधर से निराश होकर मैं उस चौपाल की ओर चला जहाँ शाम को पिताजी गाँव के और बड़े-बूढ़ों के साथ हुक़्क़ा पीते और हँसी-दिल्लगी करते थे। हम भी उस टाट पर क़लाबाजियाँ खाया करते। कभी-कभी वहाँ पंचायत भी बैठती थी जिसके सरपंच हमेशा पिताजी ही होते थे। इसी-चौपाल से लगी हुई एक गोशाला थी। जहाँ गाँव भर की गायें रक्खी जाती थीं और हम यहीं बछड़ों के साथ कुलेलें किया करते थे। अफ़सोस, अब इस चौपाल का पता न था। वहाँ अब गाँव के टीका लगाने का स्टेशन और एक डाकख़ाना था। उन दिनों इसी चौपाल से लगा हुआ एक कोल्हाड़ा था जहाँ जाड़े के दिनों मे ऊख पेरी जाती थी और गुड़ की महक से दिमाग़ तर हो जाता था। हम और हमारे हमजोली घण्टों गँडेरियों के इन्तज़ार में बैठे रहते थे और गँडेरियाँ काटने वाले मज़दूरो के हाथों की तेज़ी पर अचरज करते थे, जहाँ सैकड़ों बार मैंने कच्चा रस और पक्का दूध मिलाकर पिया था। यहाँ आसपास के घरों से औरतें और बच्चे अपने-अपने घड़े लेकर आते और उन्हें रस से भरवाकर ले जाते। अफ़सोस, वह कोल्हू अभी ज्यों के त्यों गड़े हुए हैं मगर देखो, कोल्हाड़े की जगह पर अब एक सन लपेटने वाली मशीन है और उसके सामने एक तम्बोली और सिगरेट की दूकान है। इन दिल को छलनी करने वाले दृश्यों से दुखी होकर मैंने एक आदमी से जो सूरत से शरीफ़ नज़र आता था, कहा-बाबा, मैं परदेशी मुसाफ़िर हूँ, रात भर पड़े रहने के लिए मुझे जगह दे दो। इस आदमी ने मुझे सर से पैर तक घूरकर देखा और बोला-आगे जाओ, यहाँ जगह नहीं है। मैं आगे गया और यहाँ से फिर हुक्म मिला- आगे जाओ। पाँचवीं बार सवाल करने पर एक साहब ने मुठ्ठी भर चने मेरे हाथ पर रख दिये। चने मेरे हाथ से छूटकर गिर पड़े और आँखों से आँसू बहने लगे। हाय, यह मेरा प्यारा देश नहीं है, यह कोई और देश है। यह हमारा मेहमान और मुसाफ़िर की आवभगत करने वाला प्यारा देश नहीं, हरगिज़ नहीं।