खपरल दालान में, कम्बल पर मिन्ना के साथ बैठा हुआ ब्रजराज मन लगाकर बातें कर रहा था। सामने ताल में कमल खिल रहे थे। उस पर से भीनी-भीनी महक लिये हुए पवन धीरे-धीरे उस झोपड़ी में आता और चला जाता था।
‘‘माँ कहती थी ...’’, मिन्ना ने कमल की केसरों को बिखराते हुए कहा।
‘‘क्या कहती थी?’’
‘‘बाबूजी परदेश जायँगे। तेरे लिये नैपाली टट्टू लायँगे।’’
‘‘तू घोड़े पर चढ़ेगा कि टट्टू पर! पागल कहीं का।’’
‘‘नहीं, मैं टट्टू पर चढ़ूंगा। वह गिरता नहीं।’’
‘‘तो फिर मैं नहीं जाऊँगा?’’
‘‘क्यों नहीं जाओगे? ऊँ-ऊँ-ऊँ, मैं अब रोता हूँ।’’
‘‘अच्छा, पहले यह बताओ कि जब तुम कमाने लगोगे, तो हमारे लिए क्या लाओगे?’’
‘‘खूब ढेर-सा रुपया’’-कहकर मिन्ना ने अपना छोटा-सा हाथ जितना ऊँचा हो सकता था, उठा लिया।
‘‘सब रुपया मुझको ही दोगे न!’’
‘‘नहीं, माँ को भी दूँगा।’’
‘‘मुझको कितना दोगे?’’
‘‘थैली-भर!’’
‘‘और माँ को?’’
‘‘वही बड़ी काठवाली सन्दूक में जितना भरेगा।’’
‘‘तब फिर माँ से कहो; वही नैपाली टट्टू ला देगी।’’
मिन्ना ने झुँझलाकर ब्रजराज को ही टट्टू बना लिया। उसी के कन्धों पर चढक़र अपनी साध मिटाने लगा। भीतर दरवाज़े में से इन्दो झाँककर पिता-पुत्र का विनोद देख रही थी। उसने कहा-‘‘मिन्ना! यह टट्टू बड़ा अड़ियल है।’’
ब्रजराज को यह विसम्वादी स्वर की-सी हँसी खटकने लगी। आज ही सवेरे इन्दो से कड़ी फटकार सुनी थी। इन्दो अपने गृहिणी-पद की मर्यादा के अनुसार जब दो-चार खरी-खोटी सुना देती, तो उसका मन विरक्ति से भर जाता। उसे मिन्ना के साथ खेलने में, झगड़ा करने में और सलाह करने में ही संसार की पूर्ण भावमयी उपस्थिति हो जाती। फिर कुछ और करने की आवश्यकता ही क्या है? यही बात उसकी समझ में नहीं आती। रोटी-बिना भूखों मरने की सम्भावना न थी। किन्तु इन्दो को उतने ही से सन्तोष नहीं। इधर ब्रजराज को निठल्ले बैठे हुए मालो के साथ कभी-कभी चुहल करते देखकर तो वह और भी जल उठती। ब्रजराज यह सब समझता हुआ भी अनजान बन रहा था। उसे तो अपनी खपरैल में मिन्ना के साथ सन्तोष-ही-सन्तोष था; किन्तु आज वह न जाने क्यों भिन्ना उठा-
‘‘मिन्ना! अड़ियल टट्टू भागते हैं, तो रुकते नहीं। और राह-कराह भी नहीं देखते। तेरी माँ अपने भीगे चने पर रोब गाँठती है। कहीं इस टट्टू को हरी-हरी दूब की चाट लगी, तो...।’’
‘‘नहीं मिन्ना! रूखी-सूखी पर निभा लेनेवाले ऐसा नहीं कर सकते!’’
‘‘कर सकते हैं मिन्ना! कह दो, हाँ!’’
मिन्ना घबरा उठा था। यह तो बातों का नया ढंग था। वह समझ न सका। उसने कह दिया-‘‘हाँ, कर सकते हैं।’’
‘‘चल देख लिया। ऐसे ही करनेवाले!’’-कहकर ज़ोर से किवाड़ बन्द करती हुई इन्दो चली गयी। ब्रजराज के हृदय में विरक्ति चमकी। बिजली की तरह कौंध उठी घृणा। उसे अपने अस्तित्व पर सन्देह हुआ। वह पुरुष है या नहीं? इतना कशाघात! इतना सन्देह और चतुर सञ्चालन! उसका मन घर से विद्रोही हो रहा था। आज तक बड़ी सावधानी से कुशल महाजन की तरह वह अपना सूद बढ़ाता रहा। कभी स्नेह का प्रतिदान लेकर उसने इन्दो को हल्का नहीं होने दिया था। इसी घड़ी सूद-दर-सूद लेने के लिए उसने अपनी विरक्ति की थैली का मुँह खोल दिया।