शरद्-पूर्णिमा थी। कमलापुर के निकलते हुए करारे को गंगा तीन ओर से घेरकर दूध की नदी के समान बह रही थी। मैं अपने मित्र ठाकुर जीवन सिंह के साथ उनके सौंध पर बैठा हुआ अपनी उज्ज्वल हँसी में मस्त प्रकृति को देखने में तन्मय हो रहा था। चारों ओर का क्षितिज नक्षत्रों के बन्दनवार-सा चमकने लगा था। धवलविधु-बिम्ब के समीप ही एक छोटी-सी चमकीली तारिका भी आकाश-पथ में भ्रमण कर रही थी। वह जैसे चन्द्र को छू लेना चाहती थी; पर छूने नहीं पाती थी।
मैंने जीवन से पूछा-तुम बता सकते हो, वह कौन नक्षत्र है?
रोहिणी होगी। -जीवन के अनुमान करने के ढंग से उत्तर देने पर मैं हँसना ही चाहता था कि दूर से सुनाई पड़ा-
बरजोरी बसे हो नयनवाँ में।
उस स्वर-लहरी में उन्मत्त वेदना थी। कलेजे को कचोटनेवाली करुणा थी। मेरी हँसी सन्न रह गई। उस वेदना को खोजने के लिए, गंगा के उस पार वृक्षों की श्यामलता को देखने लगा; परन्तु कुछ न दिखाई पड़ा।
मैं चुप था, सहसा फिर सुनाई पड़ा-
अपने बाबा की बारी दुलारी,
खेलत रहली अँगनवाँ में,
बरजोरी बसे हो।
मैं स्थिर होकर सुनने लगा, जैसे कोई भूली हुई सुन्दर कहानी। मन में उत्कण्ठा थी, और एक कसक भरा कुतूहल था! फिर सुनाई पड़ा-
ई कुल बतियाँ कबौं नाहीं जनली,
देखली कबौं न सपनवाँ में।
बरजोरी बसे हो-
मैं मूर्ख-सा उस गान का अर्थ-सम्बन्ध लगाने लगा।
अँगने में खेलते हुए-ई कुल बतियाँ, वह कौन बात थी? उसे जानने के लिए हृदय चञ्चल बालक-सा मचल गया। प्रतीत होने लगा, उन्हीं कुल अज्ञात बातों के रहस्य-जाल में मछली-सा मन चाँदनी के समुद्र में छटपटा रहा है।
मैंने अधीर होकर कहा-ठाकुर! इसको बुलवाओगे?
नहीं जी, वह पगली है।
पगली! कदापि नहीं! जो ऐसा गा सकती है, वह पगली नहीं हो सकती। जीवन! उसे बुलाओ, बहाना मत करो।
तुम व्यर्थ हठ कर रहे हो। -एक दीर्घ निश्वास को छिपाते हुए जीवन ने कहा।
मेरा कुतूहल और भी बढ़ा। मैंने कहा-हठ नहीं, लड़ाई भी करना पड़े तो करूँगा। बताओ, तुम क्यों नहीं बुलाने देना चाहते हो?
वह इसी गाँव की भाँट की लडक़ी है। कुछ दिनों से सनक गई है। रात भर कभी-कभी गाती हुई गंगा के किनारे घूमा करती है।
तो इससे क्या? उसे बुलाओ भी।
नहीं, मैं उसे न बुलवा सकूँगा।
अच्छा, तो यही बताओ, क्यों न बुलवाओगे?
वह बात सुनकर क्या करोगे?
सुनूँगा अवश्य-ठाकुर! यह न समझना कि मैं तुम्हारी जमींदारी में इस समय बैठा हूँ, इसलिए डर जाऊँगा।-मैंने हँसी से कहा।