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संत कंवर रामजी का जन्म 13 अप्रैल सन् 1885 ईस्वी को बैसाखी के दिन सिंध प्रांत में सक्खर जिले के मीरपुर माथेलो तहसील के जरवार ग्राम में हुआ था। उनके पिता ताराचंद और माता तीर्थ बाई दोनों ही प्रभु भक्ति एवं हरि कीर्तन करके संतोष और सादगी से अपना जीवन व्यतीत करते थे। उदरपूर्ति के लिए ताराचंद एक छोटी सी दुकान चलाते थे। उनके जीवन में संतान का अभाव था। सिंध के परम संत खोतराम साहिब के यहां माता तीर्थ बाई हृदय भाव से सेवा करती थीं। संत के आशीर्वाद से उन्हें एक पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई जिसका नाम 'कंवर' रखा गया। कंवर का अर्थ है 'कंवल' अर्थात कमल का फूल। नामकरण के समय संत खोताराम साहिब ने भविष्यवाणी की कि जिस प्रकार कमल का फूल तालाब के पानी और कीचड़ में खिलकर दमकता रहता है वैसे ही इस जगत में 'कंवर' भी निर्मल, विरक्त होगा और सारे विश्व को कर्तव्य पथ, कर्म, त्याग और बलिदान का मार्ग दिखाएगा। इस महापुरूष के प्रयासो से भारत के संतों और सूफियों की अमरवाणी सिंध के शहर-शहर, गांव-गांव और घर-घर गूंजी। वे कबीर, मीरा, सूरदास, गुरू नानक, शेख फरीद, बुल्लेशाह, अब्दुल लतीफ, सामी, सचल सरमस्त के अतिरिक्त भारत के अनेक महान कवियों और दरवेशों के दोहों और भजनों और राजा विक्रमादित्य, राजा हरीशचंद्र, भक्त ध्रुव और भक्त प्रहलाद आदि की गाथाओं को अपनी मधुर और खनकती हुई आवाज़ में गाते थे। ऐसा प्रतीत होता था मानों भक्ति संगीत का कोई विशाल समागम हो रहा हो। उन्होंने धर्म, नस्ल और जाति के भेद-भाव को अपने निकट नहीं आने दिया। उनकी बुलंद आवाज़ अंधेरे और खामोशी को चीरती हुइ मीलों तक सुनाई देती थी। उनके श्रद्धालु भांप जाते थे कि निकट ही किसी गांव में संत कंवर राम की भगति का आयोजन है।