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Shrimad Bhagavad Gita Chapter-09 (Part-09) in Hindi Podcast

भागवत गीता भाग ९ सारांश / निष्कर्ष :- राजविद्या-जागृति

इस अध्याय के आरम्भ मै श्रीकृष्ण ने कहा – अर्जुन! तुझ दोषरहित भक्त के लिये मैं इस ज्ञान को विज्ञानं सहित कहूँगा, जिसे जानकर कुछ भी जानना शेष नहीं रहेगा। इसे जानकर तू संसार बंधन से छुट जायेगा। यह ज्ञान सम्पूर्ण विधियाओ का राजा है विद्या वह है जो परमब्रह्म में प्रवेश दिलाये। यह ज्ञान उसका भी राजा है अथार्त निश्चय ही कल्याण करने वाला है। यह सम्पूर्ण गोपनीयों का भी राजा है, गोपनीय वस्तु को भी प्रत्यक्ष करने वाला है। यह प्रत्यक्ष फलवाला, साधन करने मै सुगम और अविनाशी है। इसका थोडा साधन आप को पार लगा जाये तो इसका कभी नाश नहीं होता वरन इसके प्रभाव से वह परमश्रेय तक पहुचं जाता है, किन्तु इसमें एक शर्त है। श्रद्धाविहीन पुरुष परमगति को न प्राप्त होकर संसार-चक्र में भटकता है।

योगेश्वर श्रीकृष्ण ने योग के ऐश्वर्य पर भी प्रकाश डाला। दुःख के सयोग का वियोग ही योग है अथार्त जो संसार के संयोग वियोग से सर्वथा रहित है। उसका नाम योग है। परमतत्व परमात्मा के मिलने का नाम योग है परमात्मा की प्राप्ति ही योग की पराकाष्ठा है। जो इसमें प्रवेश पा गया, उस योगी के प्रभाव को देख कि सम्पूर्ण भूतो का स्वामी और जीवधारियों का पोषण करने वाला होने पर भी मेरा आत्मा उन भूतो में स्थित नहीं है। आत्मस्वरूप में स्थित हूँ। वही हूँ। जैसे आकाश से उत्पन सर्वत्र विचरने वाला वायु आकाश में ही स्थित है किन्तु उसे मलिन नहीं कर पाता उसी प्रकार सम्पूर्ण भुत मुझमें स्थित है लेकिन में उनमे लीन नहीं हूँ।

अर्जुन कल्प के अदि में मैं भूतो को विशेष प्रकार से रचता हूँ, सजाता हूँ और कल्प के पूर्तिकाल में सम्पूर्ण भुत मेरी प्रकर्ति को अथार्त योगरूढ़ महापुरुष की रहनी को, उनके अव्यक्त भाव को प्राप्त होते है। यद्यपि महापुरुष प्रकर्ति से परे है, किन्तु प्राप्ति के पश्चात स्वभाव अथार्त स्वयं में स्थित रहते हुये लोक संग्रह के लिये जो कार्य करता है वह उसकी एक रहनी है। इसी रहनी के कार्य कलाप को उस महापुरुष की प्रकर्ति कहकर संबोधित किया गया है।

एक रचयिता तो में हूँ, भूतो को कल्प के लिए प्रेरित करता हूँ और दूसरी रचयिता त्रिगुणमयी प्रकर्ति है, जो मेरे अध्याय से चाराचर सहित भूतो को रचती है। यह भी एक कल्प है। जिसमें शरीर परिवर्तन और काल परिवर्तन निहित है तुलसीदास भी यही कहते है


एक दुष्ट अतिसय दुखरूपा। जा बस जीव परा भवकुपा।।

प्रकर्ति के दो भेद विधा और अविधा है। इनमें अविधा दुष्ट है, दुख रूप है जिससे विवश जीव भवकूप में पड़ा है, जिससे प्ररित होकर जीव काल, कर्म, स्वभाव और गूढ़ के घेरे में आ जाता है। दूसरी है विधामाया, जिसे श्रीकृष्ण कहते है की मैं रचता हूँ। गोस्वामी जी के अनुसार प्रभु रचते है।


एक रचइ जग गुन बस जाके। प्रभु प्ररित नहि निज बल ताकें।।

यह जगत की रचना करती है, जिनके आश्रित गुण है। कल्याणकारी गुण एकमात्र ईश्वर में है प्रकर्ति में गुण है ही नहीं, वह तो नश्वर है लेकिन बिद्या में प्रभु ही प्ररक बनकर करते है।

इस प्रकार कल्प दो प्रकार के है। एक तो वस्तु का, शरीर और काल का परिवर्तन कल्प यह परिवर्तन प्रकर्ति ही मेरे आभास से करती है। किन्तु इसमें महान कल्प जो आत्मा को निर्मल स्वरूप प्रदान करता है, उसका शृंगार महापुरुष करते है। वे अचेत भूतो को सचेत करते है भजन का आदि हि इस कल्प का आरम्भ है और भजन की पराकाष्ठा कल्प का अन्त है। जब यह कल्प भवरोग से पूर्ण निरोग वनाकर शाश्वत ब्रह्म में प्रवेश ( स्थिति ) दिला देता है, प्रवेश काल में योगी मेरी रहनी और मेरे स्वरूप को प्राप्त होता है। के पश्चात महापुरुष की रहनी ही उसकी प्रकर्ति है।