Shrimad Bhagavad Gita Chapter-10 (Part-10) in Hindi Podcast
इस अध्याय में श्रीकृष्ण ने कहा कि – अर्जुन! मैं तुझे पुनः उपदेश करूँगा, क्योकि तू मेरा अतिशय प्रिय है। पहले कह चुके है, फिर भी कहने जा रहे है, क्योकि पूर्तिपर्यन्त सदगुरु से सुनने की आवश्यकता रहती है। मेरी उत्पति को न देवता और न महर्षिगण ही जानते है क्योकि मैं उनका भी आदि कारण हूँ। अव्यक्त स्थिति के पश्चात की सार्वभौम अवस्था को वही जनता है, जो हो चुका है। जो मुझे अजन्मा, अनादी और सम्पूर्ण लोको के महान ईश्वर को साक्षात्कारसहित जानता है वही ज्ञानी है।
बुद्धि, ज्ञान, असंमूढ़ता, इन्द्रियों का दमन, मन का शमन, सन्तोष, तप, दान और कीर्ति के भाव अथार्त देवी संपद् के उक्त लक्षण मेरी देन है। सात महर्षिजन अथार्त योग की सात भूमिकाएँ, उससे भी पहले होने वाले तदनुरूप अन्त:करण चतुष्टय और इनके अनुकूल मन जो स्वयंभू है, स्वयं रचयिता है ये सब मुझमें भाव वाले है, लगाव और श्रद्धावाले है, जिंनकी संसार में सम्पूर्ण प्रजा है, ये सब मुझ से ही उत्पन्न है अर्थात् साधनामयी प्रवार्तिया मेरी ही प्रजा है। इनकी उत्पति अपने से नहीं, गुरु से होती है। जो उपर्युक्त मेरी विभूतियों को साक्षात् जान लेता है, वह नि:सन्देह मुझमें एकीभाव से प्रवेश करने के योग्य है।
अर्जुन! मैं ही सबकी उत्पति का कारण हूँ- ऐसा जो श्रद्धा से जान लेते है वे अनन्य भाव से मेरा चिन्तन करते है, निरन्तर मुझमें मन, बुद्धि और प्राणों से लगने वाले होते है, आपस में मेरा गुण चिन्तन और मुझमें रमण करते है। उन निरन्तर मुझसे सयुक्त हुए पुरुषो को मैं योग में प्रवेश करने वाली बुद्धि प्रदान करता हूँ। यह मेरी ही देन है। इस प्रकार बुद्धियोग देते है तो अर्जुन! “आत्मभावस्थ” उनकी आत्मा में जाग्रत होकर खडा हो जाता हूँ और उनके ह्र्दय में अज्ञान से उत्पन अंधकार को ज्ञानरुपी दीपक से नष्ट करता हूँ।
अर्जुन ने प्रश्न किया कि भगवन! आप परम पवित्र, सनातन, दिव्य, अनाधि और सर्वत्र व्याप्त है- ऐसा महर्षिगण कहते है तथा वर्तमान में देवर्षि नारद, देवल, व्यास और आप भी वही कहते है। यह सत्य भी है कि आप को न देवता जानते है न दानव , स्वयं आप जिसे जाना दे वही जान पाता है। आप ही अपनी विभूतियों को विस्तार से कहने में समर्थ है। अत: जनार्दन! आप अपनी विभूतियों को विस्तार से कहिये। पूर्तिपर्यन्त इष्ट से सुनते रहने की उत्कंठा बनी रहनी चाहिये। आगे इष्ट के अन्तराल में क्या है, उसे साधक क्या जाने।
इस पर योगेश्वर श्रीकृष्ण ने एक-एक करके अपनी प्रमुख विभूतियों का लक्षण संक्षेप में बताया – जिनमें से कुछ योग साधन में प्रवेश करने के साथ मिलने वाली अंतरग विभूतियों चित्रण है और शेष कुछ समाज में ऋद्धियों-सिद्धियों के साथ पाई जाने वाली विभूतियों पर प्रकाश डाला और अन्त में उन्होंने बल देकर कहा – अर्जुन! बहुत कुछ जानने से तेरा क्या प्रयोजन है? इस संसार में जो कुछ भी तेज और ऐश्वर्ययुक्त वस्तुएं है, वह सब मेरे तेज के अंश मात्र में स्थित है। वस्तुत: मेरी विभूतियाँ अपार है। ऐसा कहते हुये योगेश्वर ने इस अध्याय का पटाक्षेप किया।
इस अध्याय में श्रीकृष्ण ने अपनी विभूतियों की मात्र बौद्धिक जानकारी दी, जिससे अर्जुन की श्रद्धा ओर से सिमटकर एक इष्ट में लग जाये। किन्तु बन्धुओं! सब कुछ सुनलेने और बाल की खाल निकालकर समझ लेने के बाद भी चलकर उसे जानना शेष ही रहता है यह क्रियात्मक पथ है।
सम्पूर्ण अध्याय में योगेश्वर की विभूतियों का ही वर्णन है। अत: –
इस प्रकार श्रीमद्भगवद्गीतारूपी उपनिषद् एवं ब्रह्मविद्या तथा योगशास्त्र विषयक श्रीकृष्ण और अर्जुन के संवाद में “विभूति-वर्णन” नामक दसवाँ अध्याय पूर्ण होता है।