पाँच छह सौ साल पहले के हिंदुस्तान के क़िस्से जब सुने सुनाये जाते हैं तो कहीं ना कहीं ठगों का ज़िक्र ज़रूर आता है। “ठग” यानि सुनसान रास्तों पर समूह बना कर यात्रियों को लूटने वाले गिरोह, जिनसे यात्री ख़ौफ़ खाते थे। इनसे माल असबाब लुटने का ख़तरा तो था ही, जान जाना भी क़रीब क़रीब तय ही था।
सुप्रसिद्ध उर्दू साहित्यकार और आलोचक शम्सुर्रहमान फ़ारूक़ी के उपन्यास “कई चांद थे सरे-आसमां” के इस अंश में कहानी के एक पात्र मिर्ज़ा आग़ा तुराब अली एक कामयाब व्यापारिक दौरा कर के सड़क के रास्ते घर लौट रहे हैं और रास्ते में कई बार उनका और उनके साथियों का सामना ठगों के गिरोह से होता है।
एक सोच यह भी कहती है कि ठगी की संगठित गिरोहबाज़ी जैसा असल में कुछ था नहीं पर अंग्रेजों ने समाज के हाशिये पर पड़े हिंदुस्तानियों को, ख़ासकर वे जो उनके ख़िलाफ़ खड़े हुए, इस ख़तरनाक तरीक़े से बहुत बढ़ा चढ़ा के पेश किया। इसके बावजूद, एक कहानी के तौर पर ही, ये अंश और ये किताब बहुत पठनीय बन पड़े हैं और आशा है आपको पसंद आयेंगे।
लीजिये, ठगों के कारनामों का दिलचस्प और कहीं कहीं रोंगटे खड़े कर देने वाला वर्णन का दूसरा और आख़िरी भाग सुनिये।
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