अवाच्यवादांश्र्च बहून्वदिष्यन्ति तवाहिताः |
निन्दन्तस्तव सामर्थ्यं ततो दुःखतरं नु किम् || ३६ ||
अवाच्य– कटु; वादान्– मिथ्या शब्द; च– भी; बहून्– अनेक; वदिष्यन्ति– कहेंगे; तव– तुम्हारे; अहिताः– शत्रु; निन्दन्तः– निन्दा करते हुए; तव– तुम्हारी; सामर्थ्यम्– सामर्थ्य को; ततः– अपेक्षा; दुःख-तरम्– अधिक दुखदायी; नु– निस्सन्देह; किम्– और क्या है?
तुम्हारे शत्रु अनेक प्रकार के कटु शब्दों से तुम्हारा वर्णन करेंगे और तुम्हारी सामर्थ्य का उपहास करेंगे | तुम्हारे लिए इससे दुखदायी और क्या हो सकता है?
तात्पर्यः प्रारम्भ में ही भगवान् कृष्ण को अर्जुन के अयाचित दयाभाव पर आश्चर्य हुआ था और उन्होंने इस दयाभाव को अनार्योचित बताया था | अब उन्होंने विस्तार से अर्जुन के तथाकथित दयाभाव के विरुद्ध कहे गये अपने वचनों को सिद्ध कर दिया है |