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नक़ाब-ए-इश्क़: एक ग़ज़ल -सर्वजीत
जो हक़ीक़त है, उसे झूठ बनाएँ कैसे?
चेहरे पे अब नया चेहरा सजाएँ कैसे?
हँसी बनावटी हमने ओढ़ ली लेकिन,
अंदर से टूटे हैं, तो खिलखिलाएँ कैसे?
दर्द ज़ुबाँ पर न आए, हुनर सीख लिया,
आँख में भरे इश्क़ को अब छुपाएँ कैसे?
सच अगर कहें तो रूठ जाओगे हमसे,
झूठी बातों से तुम्हें बहलायें कैसे?
ये गीत जो मेरे हैं, दिल की दास्ताँ हैं,
तेरे छल से अब सुर वो मिलाएँ कैसे?
ना सुकूं की खोज 'सर्वो', ना रहमत तलब है
तेरी ख़ुशी में हम ख़ुद को मिटाएं कैसे?
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