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Description

यथास्मै रोचते विश्वम् - रामविलास शर्मा 

साहित्य का पांचजन्य समर भूमि में उदासीनता का राग नहीं सुनाता। वह मनुष्य को भाग्य के आसरे बैठने और पिंजड़े में पंख फड़फड़ाने की प्रेरणा नहीं देता। इस तरह की प्रेरणा देने वालों के वह पंख कतर देता है। वह कायरों और पराभव प्रेमियों को ललकारता हुआ एक बार उन्हें भी समरभूमि में उतरने के लिए बुलावा देता है। कहा भी है- “क्लीवानां धाष्ट्र्यजननमुत्साहः शूरमानिनाम्।” भरत मुनि से लेकर भारतेंदु तक चली आती हुई हमारे साहित्य की यह गौरवशाली परंपरा है। इसके सामने निरुद्देश्य कला, विकृति काम-वासनाएँ, अहंकार और व्यक्तिवाद, निराशा और पराजय के ‘सिद्धांत’ वैसे ही नहीं ठहरते जैसे सूर्य के सामने अंधकार.