अदभुत अपूर्व स्वप्न - भारतेंदु हरिश्चंद्र
आज रात्रि को पर्यंक पर जाते ही अचानक आँख लग गई। सोते में सोचता क्या हूँ कि इस चलायमान शरीर का कुछ ठीक नहीं। इस संसार में नाम स्थिर रहने की कोई युक्ति निकल आवे तो अच्छा है, क्योंकि यहाँ की रीति देख मुझे पूरा विश्वास होता है कि इस चपल जीवन का क्षण भर का भरोसा नहीं। ऐसा कहा भी है –
स्वाँस स्वाँस पर हरि भजो वृथा स्वाँस मति खोय।
ना जाने या स्वाँस को आवन होय न होय।।
देखो समय-सागर में एक दिन सब संसार अवश्य मस्त हो जायगा। काल-वश शशि-सूर्य भी नष्ट हो जाएँगे। आकाश में तारे भी कुछ काल पीछे दृष्टि न आवेंगे। केवल कीर्ति-कमल संसार-सरवर में रहे वा न रहे, और सब तो एक न एक दिन तप्त तवे की बूँद हुए बैठे हैं। इस हेतु बहुत काल तक सोच-समझ प्रथम यह विचारा कि कोई देवालय बनाकर छोड़ जाऊँ, परंतु थोड़ी ही देर में समझ में आ गया कि इन दिनों की सभ्यता के अनुसार इससे बड़ी कोई मूर्खता नहीं और वह तो मुझे भली भाँति मालूम है कि यह अँगरेजी शिक्षा रही तो मंदिर की ओर मुख फेरकर भी कोई न देखेगा। इस कारण इस विचार का परित्याग करना पड़ा। फिर पडे-पडे पुस्तक रचने की सूझी। परंतु इस विचार में बडे काँटे निकले। क्योंकि बनाने की देर न होगी कि कीट ‘क्रिटिक’ काटकर आधी से अधिक निगल जाएँगे। यश के स्थान, शुद्ध अपयश प्राप्त होगा। जब देखा कि अब टूटे-फूटे विचार से काम न चलेगा, तब लाड़िली नींद को दो रात पड़ोसियों के घर भेज आँख बंद कर शंभु की समाधि लगा गया, यहाँ तक कि इकसठ वा इक्यावन वर्ष उसी ध्यान में बीत गए। अंत में एक मित्र के बल से अति उत्तम बात की पूँछ हाथ में पड़ गई। स्वप्न ही में प्रभात होते ही पाठशाला बनाने का विचार दृढ़ किया। परंतु जब थैली में हाथ डाला, तो केवल ग्यारह गाड़ी ही मुहरें निकलीं। आप जानते हैं इतने में मेरी अपूर्व पाठशाला का एक कोना भी नहीं बन सकता था। निदान अपने इष्ट-मित्रों की भी सहायता लेनी पड़ी। ईश्वर को कोटि धन्यवाद देता हूँ जिसने हमारी ऐसी सुनी। यदि ईंटों के ठौर मुहर चिनवा लेते तब भी तो दस-पाँच रेल रूपये और खर्च पड़ते। होते-होते सब हरि-कृपा से बनकर ठीक हुआ। इसमें जितना समस्त व्यय हुआ वह तो मुझे स्मरण नहीं है, परंतु इतना अपने मुंशी से मैंने सुना था कि एक का अंक और तीन सौ सत्तासी शून्य अकेले पानी में पड़े थे। बनने को तो एक क्षण में सब बन गया था, परंतु उसके काम जोड़ने में पूरे पैंतीस वर्ष लगे। जब हमारी अपूर्व पाठशाला बनकर ठीक हुई, उसी दिन हमने हिमालय की कंदराओं में से खोज-खोजकर अनेक उद्दंड पंडित बुलवाए, जिनकी संख्या पौन दशमलव से अधिक नहीं है। इस पाठशाला में अगणित अध्यापक नियत किए गए परंतु मुख्य केवल ये हैं – पंडित मुग्धमणि शास्त्री तर्कवाचस्पति, प्रथम अध्यापक। पाखंडप्रिय धर्माधिकारी अध्यापक धर्मशास्त्र। प्राणांतकप्रसाद वैद्यराज; अध्यापक वैद्यक-शास्त्र। लुप्तलोचन ज्योतिषाभरण, अध्यापक ज्योतिषशास्त्र। शीलदानानल नीति-दर्पण, अध्यापक आत्मविद्या।
इन पूर्वोक्त पंडितों के आ जाने पर अर्धरात्रि गए पाठशाला खोलने बैठे। उस समय सब इष्ट-मित्रों के सन्मुख उस परमेश्वर को कोटि धन्यवाद दिया, जो संसार को बनाकर क्षण-भर में नष्ट कर देता है और जिसने विद्या, शील, बल के सिवाय मान, मूर्खता, परद्रोह, परनिंदा आदि परम गुणों से इस संसार को विभूषित किया है। हम कोटि धन्यवादपूर्वक आज इस सभा के सन्मुख अपने स्वार्थरत चित्त की प्रशंसा करते है जिसके प्रभाव से ऐसे उत्तम विद्यालय की नींव पड़ी। उस ईश्वर को ही अंगीकार था कि हमारा इस पृथ्वी पर कुछ नाम रहे, नहीं तो जब द्रव्य की खोज में समुद्र में डूबते-डूबते बचे थे तब कौन जानता था कि हमारी कपोलकल्पना सत्य हो जायगी। परंतु ईश्वर के अनुग्रह से हमारे सब संकट दूर हुए और अंत समय, हमारी अभिलाषा पूर्ण हुई।
इनसे भिन्न पंडित प्राणांतकप्रसाद भी प्रशंसनीय पुरुष हैं। जब तक इस घट में प्राण हैं तब तक न किसी पर इनकी प्रशंसा बन पड़ी न बन पड़ेगी। ये महावैद्य के नाम से इस समस्त संसार में विख्यात हैं। चिकित्सा में ऐसे कुशल हैं कि चिता पर चढ़ते-चढ़ते रोगी इनके उपकार का गुण नहीं भूलता। कितना ही रोग से पीड़ित क्यों न हो क्षण भर में स्वर्ग के सुख को प्राप्त होता है। जब तक औषधि नहीं देते केवल उसी समय तक प्राणों को संसारी व्यथा लगी रहती है।