म दैहिक पराधीनता से मुक्त होना तो चाहते हैं, पर मानसिक पराधीनता में अपने-आपको स्वेच्छा से जकड़ते जा रहे हैं। किसी राष्ट्र या जाति का सबसे बहुमूल्य अंग क्या है? उसकी भाषा, उसकी सभ्यता, उसके विचार, उसका कल्चर। यही कल्चर हिंदू को हिंदू मुसलमान को मुसलमान और ईसाई को ईसाई बनाए हुए हैं। मुसलमान इसी कल्चर की रक्षा के लिए हिंदुओं से अलग रहना चाहता है, उसे भय है, कि सम्मिश्रण से कहीं उसके कल्चर का रूप ही विकृत न हो जाए। इसी तरह हिंदू भी अपने कल्चर की रक्षा करना चाहता है, लेकिन क्या हिंदू और क्या मुसलमान, दोनों अपने कल्चर की रक्षा की दुहाई देते हुए भी उसी कल्चर का गला घोंटने पर तुले हुए हैं।
कल्चर (सभ्यता या परिष्कृति) एक व्यापक शब्द है। हमारे धार्मिक विचार, हमारी सामाजिक रूढ़ियाँ, हमारे राजनैतिक सिद्धांत, हमारी भाषा और साहित्य, हमारा रहन-सहन, हमारे आचार-व्यवहार, सब हमारे कल्चर के अंग हैं, पर आज हम अपनी बेदर्दी से उसी कल्चर की जड़ काट रहे हैं। पश्चिम वालों को शक्तिशाली देखकर हम इस भ्रम में पड़ गए हैं, कि हममें सिर से पाँव तक दोष ही दोष हैं, और उनमें सिर से पाँव तक गुण ही गुण। इस अंधभक्ति में हमें उनके दोष भी गुण मालूम होते हैं और अपने गुण भी दोष। भाषा को ही ले लीजिए। आज अंग्रेजी हमारे सभ्य समाज की व्यावहारिक भाषा बनी हुई है। सरकारी भाषा तो वह है ही, दफ्तरों में भी हमें अंग्रेजी में काम करना ही पड़ता है; पर उस भाषा की सत्ता के हम ऐसे भक्त हो गए हैं, कि निजी चिट्ठियों में, घर की बातचीत में भी उसी भाषा का आश्रय लेते हैं। स्त्री पुरुष को अंग्रेजी में पत्र लिखती है, पिता पुत्र को अंग्रेजी में पत्र लिखता है। दो मित्र मिलते हैं, तो अंग्रेजी में वार्तालाप करते हैं, कोई सभा होती है, तो अंग्रेजी में डायरी अंग्रेजी में लिखी जाती है।
फ्रांसीसी कवि फ्रेंच में कविता करता है, जर्मन जर्मन में, रूसी रशियन में, कम-से-कम जिन रचनाओं पर उसे गर्व होता है, वह अपनी ही भाषा में करता है; लेकिन हमारे यहाँ के सारे कवि और सारे लेखक अंग्रेजी में लिखने लगें, अगर केवल कोई प्रकाशक उनकी रचनाओं को छापने पर तैयार हो जाए। जिन्हें प्रकाशक मिल जाते हैं, वह चुकते भी नहीं, चाहे अंग्रेज आलोचक उनका मजाक ही क्यों न उड़ावें, मगर वह खुश हैं।
हम मानते हैं, कि अंग्रेजी भाषा पौढ़ है, हरेक प्रकार के भावों को आसानी से जाहिर कर सकती है और भारतीय भाषाओं में अभी यह बात नहीं आई लेकिन जब वही लोग, जिन पर भाषा के निर्माण और विकास का दायित्व है, दूसरी भाषा के उपासक हो जायें, तो उनकी अपनी भाषा का भविष्य भी तो शून्य हो जाता है। फिर क्या विदेशी साहित्य की नींव पर आप भारतीय राष्ट्रीयता की दीवार खड़ी करेंगे? यह हिमाकत है। आज हमारा पठित-समाज साधारण जनता से पृथक हो गया है। उसका रहन-सहन, उसकी बोल-चाल, उसकी वेश-भूषा, सभी उसे साधारण समाज से अलग कर रहे हैं। शायद वह अपने दिल में फूला नहीं समाता, कि हम कितने विशिष्ट हैं। शायद वह जनता को नीच और गंवार समझता है, लेकिन वह खुद जनता की नजरों से गिर गया। है। जनता उससे प्रभावित नहीं होती, उसे ‘किरंटा’ या ‘बिगड़ैल’ या ‘साहब बहादुर कहकर उसका बहिष्कार करती है और आज खुदा न खासता वह किसी अंग्रेज के हाथों पिट रहा हो, तो लोग उसकी दुर्गति का मजा उठावेंगे, कोई उसके पास भी न फटकेगा। जरा इस गुलामी को देखिए, कि हमारे विद्यालयों में हिंदी या उर्दू भी अंग्रेजी द्वारा पढ़ाई जाती है। मगर बेचारा हिंदी प्रोफेसर अंग्रेजी में लेक्चर न दें, तो छात्र उसे नालायक समझते हैं। आदमी के मुख से कलंक लग जाए तो वह शरमाता है, उस क्लक को छिपाता है, कम-से-कम उस पर गर्व नहीं करता; पर हम अपनी दासता के कलंक को दिखाते फिरते हैं, उसकी नुमाइश करते हैं, उस पर अभिमान करते हैं, मानो वह नेकनामी का तमाशा हो, या हमारी कीर्ति की ध्वजा वाह री भारतीय दासता, तेरी बलिहारी है!