हास्य नाटक | comedy act | मुंशी इतवारीलाल और बाज़ बहु बाबूलाल: (बड़बड़ाते हुए) एक हजार एक सौ मरतबा समझा गया, पर वाह रे तिरिया! कान पर जूं नहीं रेंगती। सतीश: (आवाज लगाकर) क्या बात है बाबूलालजी, सुबह जल्दी लालटेन हो रहे हो! बैठक में आने वाले या अंदर ही भाषण देते रहते हैं। बबलू: (पास आते हुए) आया सतीश बबलू! भाषण नहीं दे रहा हूँ। अपने कर्म को रो रहा हूँ। लेकिन इस घर में मेरी कोयी सुने, तब न। बताइये, एक हजार एक सौ एक मरतबा कोई बात कहूँ तो उसका असर क्यों नहीं होता। सतीश: वास्तव में यह ताज्जुब की बात है! हजार बार कहने से तो मंत्र से भी सिद्ध हो जाता है। बाबूलाल: आप ही देखिए न सतीश बबलू! मैंने हजार बार अपनी बहू से कह दिया कि सुबह जब मैं तिजोरी खोलकर लक्ष्मीमाया के दर्शन करता हूँ, उस वक्त मेरे सामने न पड़ा था। ‘वह है कि बू बाबूजी चाय’ कह कर छिपकली की तरह सामने कूद पड़ती है। कसम भगवान की, इतना गुस्सा आता है कि मेरे माथे में चाय की केतली उबलने लगती है। सतीश: कमाल है जनाब! कोयी सुबह सुबह चाय न मिलने पर गुस्साता है और आप चाय देखकर भड़कते हैं। बाबूलाल: हॉं मैं भड़कता हंन। मुझे तिजोरी खोलते वक्त बहू का आना कतई पसंद नहीं है। सतीश: क्यों वह तिजोरी पर हाथ साफ करता है। बबलू: जी नहीं! आप तो जानते हैं, साल के साल गुजरते जा रहे हैं, पर उसे कोख फलने का नाम नहीं लेती। घरवाली कहती है कि वह बॉंज़ है। मुहल्लेवाले उसकी छांव बरकाने लगे हैं। ऐसा अशुभ पहलू देखने को मैं ही बचा रहा हूँ। सतीश: अच्छा तो यह बात है। मैंने तब सोचा था कि शायद लड़के-बहू में बनती नहीं है। बाबूलाल: बनती क्यों नहीं। हे सतीश भैया, बनती तो ऐसी है कि गुड़ और चींटा माँ खा जाए। पर भैया, ऊसर में कहीं दूब जमती है। मेरी ऑख तरस बन गई चांद से पोते का मुंह देखने के लिए। वह दिन आता है तो मैं क्या नहीं करता। (लम्बी सांस भरकर) पर किस्मत को क्या कहूँ। सतीश: (जोश में) आप भी बाबूलाल जी, मर्द हो कर किस्मत का रोना रोते हैं। जो किस्मत पर काबू न पाया, वह भी कोयी इंसान है। बहू बांज़ निकल गयी तो उसका क्या रोना। हुमक कर लड़के की दूसरी शादी कर डालिये। देखिये, एक लड़की मेरी निगाह में है। बाबूलाल: यही तो रोना है सतीश बाबू! लड़के पर अपना ओवर जो नहींहैं। वह दूसरी शादी की बात सुनकर ऐसे मौनी बाबा बन जाती है गोया मुंह में भाषण ही न हो। सतीश: वाह बबलूजी! आप क्या लड़के को अनिश्चित समझ रहे हैं, जो वह आपके सिर पर चढ़कर हामी भर देगा। आप शादी का डॉल तो बैठाइये। बाबूलाल: क्या डारुल बैठाऊं! ऐसे में कौन भला आदमी ऑंख मूंदकर लड़की देगा। पड़ोसी हैं, समाज है और सबसे ऊपर मुंशी इतवारी लाल की लताड़ का डर है। सतीश: देखिए बाबूलालजी, समाज और मुंशी इतवारीलाल को तो अपने अंग पर रखिये। रही लड़की की बात, सो मेरी निगाह में तुम्हारी बिरादरी की ही एक लड़की है। रूप-गुण में लक्ष्मी है, पर हॉन्, जरा गरीब है। बाबूलाल: (उत्सुकता से) ऐसा। तो फिर देर क्या है सतीश बाबू! नेकी और पूछ पूछ। तुम बात क्यों नहीं चलाते सतीश: बात तो पक्की ही समझ में आती है। बस, आप एक बार चलकर लड़की देख ली रहें। लड़की क्या है, कच्चे दूध का कटोरा समझिये। बाबूलाल: तो चलिए, आज ही चलता हूँ। सतीश: चलिए, एक बात समझ लीजिये। लड़की गरीब घर की है, इसलिए कुछ मिलने का डौल नहीं है। बाबूलाल: आप मुझे क्या पैसा का लालची समझते हैं। सतीश: नहीं, मैं तुम्हें साधु समझता हूँ। पर बात पहले पहले ही साफ कर लेना अच्छा रहता है। और हॉं, अच्छी बहू के लिए अगर आपका कुछ रुपया खर्च हो जायें, मेरा मतलब है - गरीब लड़की वाले की कुछ मदद करनी पड़े तो आप तैयार हैं। बबलू: (आश्चर्य से) जी …… .ई …… ई ………। आप करेंगे तो वह भी करेगा। सतीश: (अकड़ कर) मैं कुछ नहीं चाहता। मैं तो सिर्फ दोस्तों की मदद और खिदमत करना चाहता हूँ। पर घर करते हाथ जलते हैं, इसलिए सारी बात दो टूक कह दी। नहीं तो बाद में आप मुंशीजी के सामने रोना रोने लगें। बाबूलाल: मुंशीजी को छोड़ दो सतीश बाबू! वे तो हमेश लेक्चर झाड़ते रहते हैं। सातवें आसमान से बातें करते हैं। उन्हें कभी आदमी की कसक नहीं सालती। मैं इस बारे में उन्हें बताना नहीं चाहता।