S03E01 Jaun Elia - Hum Kahan Aur Tum Kahan Jaana - Podcast
Step into the mesmerizing world of Jaun Elia's timeless ghazals as Ravi, a passionate connoisseur of Urdu poetry, recites and delves deep into the enchanting verses that have captivated hearts for generations. Join us on this poetic journey filled with emotion, nostalgia, and profound insights into the works of the legendary Jaun Elia.
हम कहाँ और तुम कहाँ जानाँ
हैं कई हिज्र दरमियाँ जानाँ
राएगाँ वस्ल में भी वक़्त हुआ
पर हुआ ख़ूब राएगाँ जानाँ
मेरे अंदर ही तो कहीं गुम है
किस से पूछूँ तिरा निशाँ जानाँ
आलम-ए-बेकरान-ए-रंग है तू
तुझ में ठहरूँ कहाँ कहाँ जानाँ
मैं हवाओं से कैसे पेश आऊँ
यही मौसम है क्या वहाँ जानाँ
रौशनी भर गई निगाहों में
हो गए ख़्वाब बे-अमाँ जानाँ
दर्द-मंदान-ए-कू-ए-दिलदारी
गए ग़ारत जहाँ तहाँ जानाँ
अब भी झीलों में अक्स पड़ते हैं
अब भी नीला है आसमाँ जानाँ
है जो पुर-ख़ूँ तुम्हारा अक्स-ए-ख़याल
ज़ख़्म आए कहाँ कहाँ जानाँ
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उस के पहलू से लग के चलते हैं
हम कहीं टालने से टलते हैं
बंद है मय-कदों के दरवाज़े
हम तो बस यूँही चल निकलते हैं
मैं उसी तरह तो बहलता हूँ
और सब जिस तरह बहलते हैं
वो है जान अब हर एक महफ़िल की
हम भी अब घर से कम निकलते हैं
क्या तकल्लुफ़ करें ये कहने में
जो भी ख़ुश है हम उस से जलते हैं
है उसे दूर का सफ़र दर-पेश
हम सँभाले नहीं सँभलते हैं
शाम फ़ुर्क़त की लहलहा उट्ठी
वो हवा है कि ज़ख़्म भरते हैं
है अजब फ़ैसले का सहरा भी
चल न पड़िए तो पाँव जलते हैं
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हम जी रहे हैं कोई बहाना किए बग़ैर
उस के बग़ैर उस की तमन्ना किए बग़ैर
अम्बार उस का पर्दा-ए-हुरमत बना मियाँ
दीवार तक नहीं गिरी पर्दा किए बग़ैर
याराँ वो जो है मेरा मसीहा-ए-जान-ओ-दिल
बे-हद अज़ीज़ है मुझे अच्छा किए बग़ैर
मैं बिस्तर-ए-ख़याल पे लेटा हूँ उस के पास
सुब्ह-ए-अज़ल से कोई तक़ाज़ा किए बग़ैर
उस का है जो भी कुछ है मिरा और मैं मगर
वो मुझ को चाहिए कोई सौदा किए बग़ैर
ये ज़िंदगी जो है उसे मअना भी चाहिए
वा'दा हमें क़ुबूल है ईफ़ा किए बग़ैर
ऐ क़ातिलों के शहर बस इतनी ही अर्ज़ है
मैं हूँ न क़त्ल कोई तमाशा किए बग़ैर
मुर्शिद के झूट की तो सज़ा बे-हिसाब है
तुम छोड़ियो न शहर को सहरा किए बग़ैर
उन आँगनों में कितना सुकून ओ सुरूर था
आराइश-ए-नज़र तिरी पर्वा किए बग़ैर
याराँ ख़ुशा ये रोज़ ओ शब-ए-दिल कि अब हमें
सब कुछ है ख़ुश-गवार गवारा किए बग़ैर
गिर्या-कुनाँ की फ़र्द में अपना नहीं है नाम
हम गिर्या-कुन अज़ल के हैं गिर्या किए बग़ैर
आख़िर हैं कौन लोग जो बख़्शे ही जाएँगे
तारीख़ के हराम से तौबा किए बग़ैर
वो सुन्नी बच्चा कौन था जिस की जफ़ा ने 'जौन'
शीआ' बना दिया हमें शीआ' किए बग़ैर
अब तुम कभी न आओगे या'नी कभी कभी
रुख़्सत करो मुझे कोई वा'दा किए बग़ैर
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