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Description

भगवान् विष्णु के दस प्रमुख अवतारों में दूसरा अवतार था कूर्म या कच्छप अवतार। इसके पहले विष्णु भगवान् ने एक मछली के रूप में अवतरित होकर इस सृष्टि को प्रलय से बचाया था। आज की इस कथा में देखिये क्यों भगवान को एक कछुए के रूप में अवतरित होना पड़ा। 

 

एक बार भगवान् शिव के क्रोध से जन्मे दुर्वासा ऋषि पृथ्वी लोक में भ्रमण कर रहे थे। घूमते-घूमते उन्होंने एक विद्याधरी के हाथों में सुगन्धित पुष्पों की एक माला देखी। उस माला की सुगंध से पूरा वातावरण मोहित हो रहा था। विद्याधरी ने मुनिवर के मन की इच्छा जानकर वह माला उनको भेंट कर दी। 

 

ऋषिश्रेष्ठ वह माला अपने गले में डालकर विचरण करने लगे। उसी समय उन्होंने ऐरावत पर विराजमान देवराज इन्द्र को अन्य देवताओं के साथ आते हुए देखा। उन्हें देखकर दुर्वासा ऋषि ने वह माला अपने गले से उतारकर इन्द्र के ऊपर डाल दी। इन्द्र ने वह माला अपने ऊपर से उतारकर ऐरावत के मस्तक पर डाल दी। उस मदोन्मत्त हाथी ने अपनी सूंड से उठाकर वह माला जमीन में फेंक दी। यह देखकर अपने क्रोध के लिए तीनों लोकों में प्रसिद्द दुर्वासा ऋषि क्रोधित हो गए और बोले,"अरे ऐश्वर्य के मद में चूर इन्द्र! तू बड़ा ही ढीठ है। तूने मेरी दी हुई माला का कुछ भी आदर नहीं किया। तूने ना ही आदर के साथ प्रणाम कर आभार व्यक्त किया और ना ही उसे अपने सर पर धारण किया। तूने तो उसे निरादर के साथ जमीन पर फेंक दिया। हे देवराज! जिसके क्रोध से पूरा संसार भयभीत रहता है, तूने उस दुर्वासा का अपमान किया है। जिस वैभव के गर्व से तूने यह घोर अनर्थ किया है, वह वैभव तुझसे छिन जायेगा।"

 

दुर्वासा के शाप को सुनते ही इन्द्र ऐरावत से उतरकर मुनि के चरणों में प्रणाम कर अनुनय-विनय करने लगे। इस प्रकार इन्द्र के पश्चाताप करने पर दुर्वासा ऋषि का क्रोध थोड़ा शांत हुआ तो वो कहने लगे,"इन्द्र! मैं दुर्वासा हूँ। अन्य ऋषियों की तरह क्षमाशील नहीं हूँ। मेरा दिया हुआ शाप तो सिद्ध होकर रहेगा।" 

 

ऐसा कहकर दुर्वासा ऋषि वहाँ से चले गए और इन्द्र ने भी अलकापुरी को प्रस्थान किया। शाप के प्रभाव से धीरे-धीरे इन्द्र का वैभव घटने लगा। लोगों ने धर्म-कर्म करने बंद कर दिए और लक्ष्मी संसार को छोड़कर विलुप्त हो गयीं। इस प्रकार त्रिलोकी के श्रीहीन होने के कारण देवताओं की शक्ति क्षीण हो गयी। ऐसे में दैत्यों और दानवों ने देवताओं पर आक्रमण कर दिया और उनको हराकर अलकापुरी से भगा दिया। 

 

तब इंद्रदेव के साथ समस्त देवगण पितामह ब्रह्मा के पास गए। उनसे सब कुछ सुनने के बाद ब्रह्मदेव ने उनको भगवान् विष्णु की शरण में जाने को कहा। इस प्रकार भगवान् विष्णु से सहायता की इच्छा से समस्त देवगण पितामह ब्रह्मा के साथ क्षीर सागर पहुँचे और नारायण के दर्शन पाकर उनसे बोले,"हे देव! दुर्वासा ऋषि के शाप से संसार के श्रीहीन हो जाने के कारण दैत्यों ने हमें हराकर अलकापुरी से निष्कासित कर दिया है। अब हम आपकी शरण में आये हैं। आप अपनी शक्ति से हमारे खोये हुए तेज को वापस पाने में हमारी सहायता करें।"

 

देवताओं के इस प्रकार विनती करने पर श्रीहरि बोले,"हे देवगण! आप सब लोग मेरी शरण में आये हैं तो मैं आप लोगों की सहायता अवश्य करूँगा। तुम्हारा सारा वैभव दुर्वासा ऋषि के शाप के कारण इसी क्षीरसागर में समाहित हो गया है। अब तुम लोग उन्हें वापस पाने के लिए इसका मंथन करो। इस प्रक्रिया के अंत में अमृत निकलेगा जिसे पीकर तुम सब अमर हो जाओगे। परंतु इस महान कार्य को दैत्यों और दानवों को साथ मिलकर करना पड़ेगा।"

 

यह बात सुनकर देवताओं को चिंतित देखकर भगवान् विष्णु बोले,"आप लोग चिंता मत करिये, मैं ऐसी युक्ति करूँगा की अमृत देवताओं को ही मिले।"

 

भगवान् विष्णु की आज्ञा मानकर देवताओं ने दैत्यों और दानवों को समुद्र मंथन के काम में शामिल कर लिया। शेषनाग की सहायता से मंदराचल पर्वत को मथानी बनाने के लिए लाया गया। वासुकि नाग की नेती बनायी गयी। वासुकि के मुख की ओर दैत्य और दानव तथा पूँछ की ओर देवगण लग गए। इस प्रकार जब मंथन की प्रक्रिया शुरू की गयी तो मंदराचल पर्वत बार-बार ऊपर-नीचे होने लगा। इस प्रकार तो समुद्र मंथन का कार्य संभव नहीं था। उस समय नारायण ने एक कछुए के रूप में प्रकट होकर मंदराचल पर्वत को अपनी पीठ पर धारण किया और स्वयं अपने दैवी रूप से पर्वत के ऊपर बैठ गए। इस प्रकार दोनों ओर से मंदराचल की मथानी को सहारा देकर नारायण ने क्षीर सागर के मंथन का कार्य प्रारम्भ करवाया। 

Samudra Manthan 

Earlier Shrihari had appeared in the form of a fish to save the earth from deluge caused by cosmic sleep of Brahmadev. This time he appeared to protect the Gods and restore their lost glory.

Once Durvasa rishi was roaming around and he noticed a beautiful girl playing with a garland of beautiful flowers in a garden. Entire surrounding was filled with the scent of those beautiful flowers. The girl offered the garland to Durvasa rishi, who accepted it with pleasure. 

The great sage proudly wore the garland around his neck and started roaming around. Around the same time, he noticed the king of Gods Indra passing by riding his divine elephant Eiravat. When they crossed path Durvasa rishi offered the garland to Indra. Indra took off the garland from his neck and put it on Eiravat’s head. Intoxicated with the beautiful scent of the flowers, Eiravat picked up the garland from his head and threw it on the ground. 

 

 

 

 

 

 

 
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