सर्ग 6 मे दिनकरजी बहुत सारे प्रश्न रखते हैं। पौरुष सिर्फ मरने और मरने में है या युद्ध से सब बर्बाद न हो, लाखों जानें न जाएं इसीलिए अपनी बलिदान देने में है? क्या मन इस अन्याय स्वीकार कर पाएगा कि कौरव सुई की नोक जितनी जममें भी न देंगे बिना युद्ध किए, फिर भी पांडव उसे बर्दाश्त करले और फिर एक बार वन चले जाएं - सिर्फ युद्ध के विनाश को रोकने के लिए? मनुष्य के अंदर मानवता की सुद्धा है पर फिर भी दानवता ज्यादा जोर मारता है। जरूर सुने....