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Description

अब वहाँ घोंसले हैं | दामोदर खड़से 

एक सूखा पेड़

खड़ा था 

नदी के किनारे विरक्त 

पतझड़ की विभूति लगाए 

काल का साक्षी 

अंतिम घड़ियों के ख़याल में...

नदी,

वैसे अर्से से इस इलाके से 

बहती है 

नदी ने कभी ध्यान नहीं दिया

पेड़ के पत्ते

सूख कर 

इसी नदी में बह लेते थे...

इस बरसात में जब वह जवान हुई

तब उसका किनारा

पेड़ तक पहुँचा 

सावन का संदेशा पाकर 

लहरों ने बाँध दिया एक झूला 

पेड़ के पाँवों में...

पेड़ हरियाने लगा 

उसकी भभूति धुलने लगी 

और आँखों के वैराग्य ने

देखा एक छलकता दृश्य 

नदी के हृदय की ऊहापोह...

भँवर...

फेनिल...

बस,

झूम कर झूमता रहा वह 

अब वहाँ घोंसले हैं 

चिड़ियाँ रोज चहचहाती हैं 

नदी का किनारा वापस लौट भी जाए 

कोई बात नहीं 

-पेड़ की जड़ें 

नदी की सतह में उतर चुकी हैं!