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अभिरूपा | अनामिका

नहीं जानती मेरे जीवन का हासिल क्या

मेरे वे सारे संबंध जो बन ही नहीं पाए

वे मुलाकातें जो हुई ही नहीं

वे रस्ते जो मुझसे छूट गए, या मैंने छोड़ दिये

उड़ के दरवाज़े जो खोले नहीं मैंने

शब्द जो उचारे नहीं और प्रस्ताव जो विचारे नहीं

मेरे सगे थे वही जिनकी मैं सगी न हुई

करते हैं मेरी परिचर्या इस घने जंगल में वे ही

जब आधी रात को फूलती है वह कुमुदनी

मेरी हताहत शिराओं में और टूट जाती है नींद

एक पक्षी चीखता है कहीं विरह दर्द 

आसमान भी किसी आहत जटायु सा

बस गिरा ही चाहता है मेरे कंधों पर

और उमड़ता है हृदय में सन्नाटा प्रलय मेघ सा

भंते बताइए कैसे समझे कोई कौन सगा

बुद्ध ने कहा जिसकी उपस्थिति चित्त की लौ को निष्कंप करे

वही सगा अभिरूपा सदा वही जो तुमको 

मंथरगति से सीधा चलना सिखाए, बढ़ना सिखाए

जो ऐसे, जैसे कि युद्धभूमि में हाथी बढ़ता है बौछार तीरों की हर तरफ से झेलता