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Description

अँधेरे का मुसाफ़िर - सर्वेश्वरदयाल सक्सेना

यह सिमटती साँझ,

यह वीरान जंगल का सिरा,

यह बिखरती रात, यह चारों तरफ सहमी धरा;

उस पहाड़ी पर पहुँचकर रोशनी पथरा गयी,

आख़िरी आवाज़ पंखों की किसी के आ गयी,

रुक गयी अब तो अचानक लहर की अँगड़ाइयाँ,

ताल के ख़ामोश जल पर सो गई परछाइयाँ।

दूर पेड़ों की कतारें एक ही में मिल गयीं,

एक धब्बा रह गया, जैसे ज़मीनें हिल गयीं,

आसमाँ तक टूटकर जैसे धरा पर गिर गया,

बस धुँए के बादलों से सामने पथ घिर गया,

यह अँधेरे की पिटारी, रास्ता यह साँप-सा,

खोलनेवाला अनाड़ी मन रहा है काँप-सा।

लड़खड़ाने लग गया मैं, डगमगाने लग गया,

देहरी का दीप तेरा याद आने लग गया;

थाम ले कोई किरन की बाँह मुझको थाम ले,

नाम ले कोई कहीं से रोशनी का नाम ले,

कोई कह दे, "दूर देखो टिमटिमाया दीप एक,

ओ अँधेरे के मुसाफिर उसके आगे घुटने टेक!"