आत्मस्वीकार | गौरव सिंह
जो अपराध मैंने किये,
वो जीवन जीने की न्यूनतम ज़रूरत की तरह लगे!
मैंने चोर निगाहों से स्त्रियों के वक्ष देखे
और कई बार एक लड़की का हृदय ना समझ सकने की शर्म के साथ सोया
मुझे परिजनों की मौत पर रुलाई नहीं फूटी
और कई दफ़े चिड़ियों की चोट पर फफककर रोया
मैं अपने लोगों के बीच एक लम्बी ऊब के साथ रहा
और चाय बेचती एक औरत का सारा दुःख जान लेना चाहा
मैंने रातभर जागकर लड़कियों के दुःख सुने
पर अपनी यातनाएँ कहने के लिए कोई नदी खोजता रहा
मुझे अपनी पीड़ाएँ बताने में संकोच होता है
मैं बीमारी से नहीं, उसकी अव्याख्येयता के कारण कुढ़ता हूँ
जीवन के कई ज़रूरी क्षण भूल रहा हूँ
और तुम्हारे तिलों की ठीक जगह ना बता पाने पर शर्मिंदा हूँ
मुझ पर स्मृतिहीन होने के लांछन ना लगाओ
मैं पानी के चहबच्चों की स्मृतियाँ लिए शहर-दर-शहर भटक रहा हूँ
जितनी मनुष्यता मुझे धर्मग्रंथों ने नहीं सिखायी
उससे कहीं ज़्यादा प्रेम एक बीस साल की लड़की ने सिखाया
प्रेम में होकर मैंने ज़िन्दगी पर सबसे अधिक गौर किया
मैं यह मानने को तैयार नहीं कि प्रेम किसी को जीवन से विमुख कर सकता है।