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Description

बारिश के काँधे पर सिर रखता हूँ | शहंशाह आलम

पीड़ा में पेड़ जब दुःख बतियाते हैं दूसरे पेड़ से

मैं बारिश के काँधे पर सिर रखता हूँ अपना

आदमी बमुश्किल दूसरे का दुःख सुनना पसंद करता है

बारिश लेकिन मेरा दुखड़ा सुनने ठहर जाती है

कभी खिड़की के पास कभी दरवाज़े पर तो कभी ओसारे में

कवि होना कितना कठिन है आज के समय में

और गिरहकट होना कितना आसान काम है

हत्यारा होना तो और भी आसान होता है

बस चाकू निकाला और घोंप डाला

सामने से आ रहे कम बातचीत करने वाले के पेट में

गिरहकट से या हत्यारे से बचाने का कोई उपाय

बारिश के पास कभी नहीं होता

हाँ, इतना उसके पास ज़रूर होता है

कि बारिश मेरे आँसुओं को छुपा लेती है अपने पानी में

ताकि मेरे क्रांतिकारी होने का भ्रम बचा रहे

इस पूरे कालखंड की कविता में।