बचे हुए शब्द | मदन कश्यप
जितने शब्द आ पाते हैं कविता में उससे कहीं ज़्यादा छूट जाते हैं।
बचे हुए शब्द छपछप करते रहते हैं
मेरी आत्मा के निकट बह रहे पनसोते में
बचे हुए शब्द
थल को
जल को
हवा को
अग्नि को
आकाश को लगातार करते रहते हैं उद्वेलित
मैं इन्हें फाँसने की कोशिश करता हूँ तो मुस्कुरा कर कहते हैं: तिकड़म से नहीं लिखी जाती कविता और मुझ पर छींटे उछाल कर चले जाते हैं दूर गहरे जल में
मैं जानता हूँ इन बचे हुए शब्दों में ही बची रहेगी कविता!