बड़ा बेटा | किंशुक गुप्ता
पिता हृदयाघात से ऐसे गए
जैसे साबुन की घिसी हुई टिकिया
हाथ से छिटक कर गिर जाती है नाली में
या पत्थर लगने से अचानक चली जाती है
मोबाइल की रोशनी
अचानक मैं बड़ा हो गया
अनिद्रा के शिकार मेरे पिता को
न बक्शी गई गद्दे की नर्माई
या कंबल की गरमाई
पटक दिया गया कमरे के बाहर
जैसे बिल्ली के लिए कसोरे में
छोड़ दिया जाता है दूध
पूरी रात माँ की पुतलियों में शोक से
कहीं ज़्यादा
ठहरा रहा भविष्य का पिशाच
उनकी छुअन में प्रेम नहीं
चाह थी एक सहारे की
जैसी लोहे के जंगलों से रखी जाती है
सुबह तक मुझे लगता रहा
ठंड से बिलबिलाते पिता की दहाड़ से
मैं फिर छोटा हो जाऊँगा
मैंने उनके तलवों को गुदगुदाया
दो-चार बार झटकार कर देखा
लेकिन पिता नहीं उठे
फिर मैंने ज़बरदस्ती उनकी आँखें खोल दीं
और घबराकर अपने कमरे में दौड़ गया
जिन आँखों से मैंने दुनिया देखना सीखा था
वो काली हो चुकी थीं