Listen

Description

बहामुनी - निर्मला पुतुल

तुम्हारे हाथों बने पत्तल पर भरते हैं पेट हज़ारों

पर हज़ारों पत्तल भर नहीं पाते तुम्हारा पेट

कैसी विडम्बना है कि

ज़मीन पर बैठ बुनती हो चटाईयाँ

और पंखा बनाते टपकता है

तुम्हारे करियाये देह से टप....टप...पसीना...!

क्या तुम्हें पता है कि जब कर रही होती हो तुम दातुन

तब तक कर चुके होते हैं सैकड़ों भोजन-पानी

तुम्हारे ही दातुन से मुँह-हाथ धोकर?

जिन घरों के लिए बनाती हो झाड़ू

उन्हीं से आते हैं कचरे तुम्हारी बस्तियों मे?

इस ऊबड़-खाबड़ धरती पर रहते

कितनी सीधी हो बहामुनी

कितनी भोली हो तुम

कि जहाँ तक जाती है तुम्हारी नज़र

वहीं तक समझती हो अपनी दुनिया

जबकि तुम नहीं जानती कि तुम्हारी दुनिया जैसी

कई-कई दुनियाएँ शामिल हैं इस दुनिया में

नहीं जानती

कि किन हाथों से गुज़रती

तुम्हारी चीज़ें पहुँच जाती हैं दिल्ली

जबकि तुम्हारी दुनिया से बहुत दूर है अभी दुमका भी!