बेघर लोग - जयप्रकाश कर्दम
उनको भी प्यारी है
अपनी और अपने परिवारों की ज़िंदगी
करना चाहते हैं वे भी
सरकार के सभी आदेशों, निर्देशों का पालन
अपनी ज़िंदगी की सुरक्षा के लिए
रहना चाहते हैं अपने
घरों के अंदर
इसलिए निकल रहे हैं वे
अपने दड़बों से बाहर
लौट रहे हैं अपने
गाँव-घरों की ओर
फटे हाल, नंगे पाँव
भूख और थकान की मार झेलते
सिर पर सामान की पोटली में
अपना घर उठाए
साइकिल पर
रिक्शा-ठेले में लादकर या
हाथों से छोटे बच्चों के हाथ पकड़कर
पैदल ही
उन्हें अपने साथ घसीटते हुए
वृद्धों और बीमारों को
पीठ और कंधों पर लादे
मृत बच्चों को गोद में उठाए
कोरोना के ख़तरे का
सामना करते हुए
आँखों में कोरोना से भी अधिक
आने वाले कल की
भूख का भय लिए
गिरते, पड़ते, ठोकरें खाते
ऊपर से
पुलिस की लाठी और गालियों का
प्रसाद पाते हुए
तमाम दुःख और यातनाएँ
सहते हुए भी
तय कर रहे हैं वे
सैंकड़ों-हज़ारों किलोमीटर की दूरी
अपने घर पहुँचने की जल्दी में
महानगरों को
बनाने और बसाने वाले
बेघर लोग।