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Description

भड़का रहे हैं आग | साहिर लुधियानवी 

भड़का रहे हैं आग लब-ए-नग़्मागर से हम

ख़ामोश क्या रहेंगे ज़माने के डर से हम।

कुछ और बढ़ गए जो अँधेरे तो क्या हुआ

मायूस तो नहीं हैं तुलू-ए-सहर से हम।

ले दे के अपने पास फ़क़त इक नज़र तो है

क्यूँ देखें ज़िंदगी को किसी की नज़र से हम।

माना कि इस ज़मीं को न गुलज़ार कर सके

कुछ ख़ार कम तो कर गए गुज़रे जिधर से हम।