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Description

भुतहा बाग़ | केदारनाथ सिंह 

उधर जाते हुए बचपन में डर लगता था

राही अक्सर बदल देते थे रास्ता

और उत्तर के बजाय

निकल जाते थे दक्खिन से

 अबकी गया तो देखा

भुतहा बाग़ में खेल रहे थे बच्चे

वहाँ बन गए थे कच्चे कुछ पक्के मकान

दिखते थे दूर से कुछ बिजली के खंभे भी 

लोगों ने बताया

जिस दिन गाड़ा गया पहला खम्भा

एक आवाज़-सी सुनाई पड़ी थी

मिट्टी के नीचे से 

पर उसके बाद कभी कुछ नहीं सुनाई पड़ा।

उनका अनुमान था 

कुछ भूत बह गए सन्  सरसठ की बाढ़ में 

कुछ उड़ गए जेठ की पीली आँधी में 

जो बच गए चले गए शायद 

किसी शहर की ओर

धन्धे की तलाश में

बेचारे भूत!

कितने ग़रीब थे वे कि रास्ते में मिल गए

तो आदमी से माँगते थे सिर्फ़ चुटकी-भर सुर्ती

या महज़ एक बीड़ी

अब रहा नहीं बस्ती में कोई सुनसान

कोई सन्नाटा

यहाँ तक कि नदी के किनारे का

वह वीरान पीपल भी कट चुका है कब का

सोचता हूँ - जब होते थे भूत

तो कम से कम इतना तो करते थे

कि बचाए रखते थे हमारे लिए,

कहीं कोई बावड़ी

कहीं कोई झुरमुट

कहीं निपट निरल्ले में 

एकदम अकेला कोई पेड़ छतनार!