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Description

सिगरेट पीती हुई औरत | सर्वेश्वर दयाल सक्सेना

पहली बार 

सिगरेट पीती हुई औरत 

मुझे अच्छी लगी। 

क्योंकि वह प्यार की बातें 

नहीं कर रही थी। 

—चारों तरफ़ फैलता धुआँ 

मेरे भीतर धधकती आग के 

बुझने का गवाह नहीं था। 

उसकी आँखों में 

एक अदालत थी : 

एक काली चमक 

जैसे कोई वकील उसके भीतर जिरह कर रहा हो 

और उसे सवालों का अनुमान ही नहीं 

उनके जवाब भी मालूम हों। 

वस्तुतः वह नहा कर आई थी 

किसी समुद्र में, 

और मेरे पास इस तरह बैठी थी 

जैसे धूप में बैठी हो। 

उस समय धुएँ का छल्ला 

समुद्र-तट पर गड़े छाते की तरह 

खुला हुआ था— 

तृप्तिकर, सुखविभोर, संतुष्ट, 

उसको मुझमें खोलता और बचाता भी।