देश हो तुम | अरुणाभ सौरभ
में तुम्हारी कोख से नहीं
तुम्हारी देह के मैल से
उत्पन्न हुआ हूँ
भारतमाता
विघ्नहरत्ता नहीं बना सकती माँ तुम
पर इतनी शक्ति दो कि
भय-भूख से
मुत्ति का रास्ता खोज सकूँ
बुद्ध-सी करुणा देकर
संसार में अहिंसा - शांति-त्याग
की स्थापना हो
में तुम्हारा हनु
पवन पुत्र
मेरी भुजाओं को वज्र शक्ति से भर दो
कि संभव रहे कुछ
अमरत्व और पूजा नहीं
हमें दे दो अनथक कर्म
निर्भीक शक्ति से
बोलने की
स्वायत्ता सोचने की
सच्चाई लिखने की
सुनने की
दुःखित-दुर्बल जन मुक्ति
गुनने - बुनने की शक्ति
गढ़ने-रचने - बढ़ने की
सहने- कहने - सुनने की
कर्मरत रहने की
निर्दोष कोशिश करने की
दमन मुक्त रहने की
जमके जीने की
नित सृजनरत रहने की
शक्ति..शक्ति...
तुम्हारी मिट्टी के कण- कण से बना
तुमने मुझे नहलाया, सींचा-सँवारा
तुम्हारी भाषा ने जगाकर
मेरे भीतर सुप्त - ताप
उसी पर चूल्हा जोड़कर
पके भात को खाकर
जवान हुआ हूँ में
नीले आकाश को
अपनी छत समझकर
तिसपर धमाचौकड़ी मचाते हुए
दुधियायी रोशनी से भरा चाँद है
मेरे भीतर की रोशनी
धरती से, जल से
आग से, हवा से, आकाश से
बना है, मेरा जीवन
देश हो तुम
मेरी सिहरन
मेरी गुदगुदी
आँसू- खून -भूख - प्यास सब।