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दिन घटेंगे | दिनेश सिंह

जनम के सिरजे हुए दुख

उम्र बन-बनकर कटेंगे

ज़िन्दगी के दिन घटेंगे

कुआँ अन्धा बिना पानी

घूमती यादें पुरानी

प्यास का होना वसन्ती

तितलियों से छेड़खानी

झरे फूलों से पहाड़े --

गन्ध के कब तक रटेंगे ?

ज़िन्दगी के दिन घटेंगे

चढ़ गए सारे नसेड़ी

वक़्त की मीनार टेढ़ी

'गिर रही है -- गिर रही है' --

हवाओं ने तान छेड़ी

मचेगी भगदड़ कि कितने स्वप्न

लाशों से पटेंगे ?

ज़िन्दगी के दिन घटेंगे

परिन्दे फिर भी चमन में

खेत-बागों में कि वन में

चहचहाएँगे

नदी बहती रहेगी उसी धुन में

चप्पुओं के स्वर लहर बनकर

कछारों तक उठेंगे

ज़िन्दगी के दिन घटेंगे