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Description

एक वृक्ष की हत्या - कुँवर नारायण

अबकी घर लौटा तो देखा वह नहीं था— 

वही बूढ़ा चौकीदार वृक्ष 

जो हमेशा मिलता था घर के दरवाज़े पर तैनात। 

पुराने चमड़े का बना उसका शरीर 

वही सख़्त जान 

झुर्रियोंदार खुरदुरा तना मैला-कुचैला, 

राइफ़िल-सी एक सूखी डाल, 

एक पगड़ी फूल पत्तीदार, 

पाँवों में फटा-पुराना जूता 

चरमराता लेकिन अक्खड़ बल-बूता 

धूप में बारिश में 

गर्मी में सर्दी में 

हमेशा चौकन्ना 

अपनी ख़ाकी वर्दी में 
दूर से ही ललकारता, “कौन?” 

मैं जवाब देता, “दोस्त!” 

और पल भर को बैठ जाता 

उसकी ठंडी छाँव में 

दरअसल, शुरू से ही था हमारे अंदेशों में 

कहीं एक जानी दुश्मन 

कि घर को बचाना है लुटेरों से 

शहर को बचाना है नादिरों से 

देश को बचाना है देश के दुश्मनों से 

बचाना है— 

नदियों को नाला हो जाने से 

हवा को धुआँ हो जाने से 

खाने को ज़हर हो जाने से : 

बचाना है—जंगल को मरुस्थल हो जाने से, 

बचाना है—मनुष्य को जंगल हो जाने से।