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Description

गाँव | अंजु रंजन

जब पिछली बार गाँव छोड़ती थी 

उस पोखर वाले मोड़ से मुड़ती थी 

बरबस ही बाँध लेता था 

मेरे क़दमों को मेरा गाँव! 

पिता की तरह वेदना विदुर दृष्टि 

और आँसू भरे नयनों को 

पिता की तरह मजबूत दिखावा बनकर 

मौन खड़ा था मेरा गाँव! 

माँ की ममता की तरह 

रूखे हाथों से वे रूखी हवाएँ 

सूखा जाती थी मेरे आँसू

विपरीत दिशा से बह कर 

वो लिपटा लेती थी ख़ुद से

मेरी माँ बनकर तब 

नि:शब्द रोता था मेरा गाँव!

दीन-हीन, अनपढ़-अनगढ़ 

मेरा वो मैला-कुचैला गाँव 

मेरे सनील के ख़ुशबू से 

सहम गया सा लगता था 

और गोबर और खाद की बदबू को 

धनिया पत्ते से छिपाता था 

तंग गलियों और कच्चे रास्तों के लिए 

जैसे वही जिम्मेदार है! 

ऐसा शर्मसार लगता था मेरा गाँव!

 

मेरी लाल बत्ती वाली गाड़ी के साथ 

सेल्फ़ी लेकर अपनी झेंप मिटाता था 

उसको ख़बर थी कि 

अब मेरा लौट कर आना है मुश्किल 

फिर भी बार-बार लौट आने को 

कहता था मेरा गाँव!

कोई क़ीमत नहीं उन चीज़ों की मेरे लिए 

मैं उन्हें विमान में ले जा भी न सकूँ

पर तुलसी, नीम और खट्टे बेरों की 

सौग़ातें जुटाता फिरता था मेरा गाँव 

मेरे विदेशी बच्चों को हैरान करता 

भूतहे इमली और शमशान वाली डायन 

के झूठे-सच्चे क़िस्से सुनाता था मेरा गाँव!

कितने अधूरे प्रेम-प्रसंगों और मेरी कितनी 

शरारतों और शैतानियों को 

मुस्कुराकर झेल लेता था गाँव 

माँ जब तंग आकर मारने दौड़तीं 

तो अपने आग़ोश में छुपा लेता था गाँव!

मेरे बचपन के इस ख़ज़ाने को लेकर 

मुझे मचलता खोजता फिरता था का गाँव!