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Description

गाँव गया था मैं | विश्वनाथ प्रसाद तिवारी 

गाँव गया था मैं

मेरे सामने कल्हारे हुए चने-सा आया गाँव

अफसर नहीं था मैं

न राजधानी का जबड़ा

मुझे स्वाद नहीं मिला

युवतियों के खुले उरोजों

और विवश होंठों में

अँधेरे में ढिबरी- सा टिंमटिमा रहा था गाँव

उड़े हुए रंग-सा

पुँछे हुए सिंदूर-सा

सूखे कुएँ-सा

जली हुई रोटी - सा

हँड़िया में खदबदाते कोदौ के दाने-सा गाँव

बतिया रहे थे कुछ समझदार लोग

अपने मवेशियों और पुआल

और आर्द्रा और हस्त नक्षत्र के बारे में

कउड़े के चारों ओर

गॉँव गया था मैं

मेरे सामने आए

नहारी पर खटते बच्चे

खाँसते बूढ़े

पुलिस से भयभीत युवक

पति-पत्नी, बाप-बेटे

खेत-मेड़, सास- पतोह

जाति-कुजाति, पर - पट्टीदारी

लेन-देन के झगड़े

भूल गया मैं बिरहा चैती

होली दीवाली

मेला ताजिया

खेत की हरियाली

मुझे याद आया

सीमेंट और कंकरीट का

अपना पुख्ता शांत शहर

मैं परेशान था

कविता लिखना आसान था

मेरे लिए गाँव पर

मैं भागा सुबह-सुबह ही

बिना किसी को बताए

पहली गाड़ी से

राजधानी की ओर।