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Description

हो सकता है - अशोक वाजपेयी

हो सकता है, इस बार हम 
असमय आ गए हों
हर समय कुछ ना कुछ का
अंत हो रहा होता है
और उसी समय
कुछ ना कुछ का आरंभ भी
ऐसा लग सकता है कि
अंत ही आरंभ है
और आरंभ ही अंत है
ठीक-ठीक समय तय कर पाना मुश्किल है
क्योंकि हर आना अंत है, आरंभ भी
जब मनुष्य अपने एकांत में 
विलप रहा होता है,
तब हरितिमा बाहर
खिलखिला रही होती है
फूलों को कतई ख़बर नहीं
कि मनुष्य के आंसू क्या होते हैं
प्रकृति ना हँसती है ना रोती है
फिर भी माटी का चोला पहने मनुष्य
उसपर भरोसा करता है
जबकि जीना हर दिन
अंत के और पास जाना है
नष्ट करने का उत्साह बढ़ता जाता है
कम होती जाती है
इच्छा कुछ रचने की
कम होती जाती हैं जगहें
ठिठककर कुछ सोचने की
जो नष्ट करता है, वो अपने को भी
नष्ट कर रहा होता है
जो रचता है, वो अपने को बचा रहा होता है
भुरभुरा है नाश का स्थापत्य
भुरभुरा है रचने का स्थापत्य
कोई नहीं बचता नश्वरता के श्राप से
खिड़कियाँ और दरवाज़े सब खुले हैं
खुला है आंगन
उन्हीं में होकर आती है पदचाप
ना होने की
हम उसी पदचाप की ओर 
आपका ध्यान खींचने  
शायद असमय आ गए हैं।