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Description

हम औरतें हैं मुखौटे नहीं - अनुपम सिंह

वह अपनी भट्ठियों में मुखौटे तैयार करता है 

उन पर लेबुल लगाकर सूखने के लिए 

लग्गियों के सहारे टाँग देता है 

सूखने के बाद उनको 

अनेक रासायनिक क्रियाओं से गुज़ारता है 

कभी सबसे तेज़ तापमान पर रखता है 

तो कभी सबसे कम 

ऐसा लगातार करने से 

अप्रत्याशित चमक आ जाती है उनमें 

विस्फोटक हथियारों से लैस उनके सिपाही 

घर-घर घूम रहे हैं 

कभी दृश्य तो कभी अदृश्य 

घरों से घसीटते हुए 

उनको अपनी प्रयोगशालाओं की ओर ले जा रहे हैं 

वे चीख़ रही हैं... 

पेट के बल चिल्ला रही हैं 

फिर भी वे ले जाई जा रही हैं 

उनके चेहरों की नाप लेते ख़ुश हैं वे 

कह रहे हैं आपस में 

कि अच्छा हुआ दिमाग़ नहीं बढ़ा इनका 

चेहरे लंबे-गोल, छोटे-बड़े हैं 

लेकिन वे चाहते हैं 

सभी चेहरे एक जैसे हों 

एक साथ मुस्कुराएँ 

और सिर्फ़ मुस्कुराएँ 

तो उन्होंने अपनी धारदार आरी से 

उनके चेहरों को सुडौल 

एक आकार का बनाया 

अब वे मुखौटों को चेहरों पर ठोंक रहे हैं... 

वे चिल्ला रही हैं 

हम औरतें हैं! 

सिर्फ़ मुखौटे नहीं! 

वे ठोंके ही जा रहे हैं 

ठक-ठक लगातार... 

अब वे सुडौल चेहरों वाली औरतें 

उनकी भट्ठियों से निकली 

प्रयोगशालाओं में शोधित 

आकृतियाँ हैं।