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हम नदी के साथ-साथ | अज्ञेय

हम नदी के साथ-साथ

सागर की ओर गए

पर नदी सागर में मिली

हम छोर रहे:

नारियल के खड़े तने हमें

लहरों से अलगाते रहे

बालू के ढूहों से जहाँ-तहाँ चिपटे

रंग-बिरंग तृण-फूल-शूल

हमारा मन उलझाते रहे

नदी की नाव

न जाने कब खुल गई

नदी ही सागर में घुल गई

हमारी ही गाँठ न खुली

दीठ न धुली

हम फिर, लौट कर फिर गली-गली

अपनी पुरानी अस्ति की टोह में भरमाते रहे।