जा रहा था मेंढकों का काफ़िला | अशोक चक्रधर
जा रहा था मेंढकों का काफ़िला
एक कुआँ मार्ग में उनको मिला
वे लगे कुएँ के अंदर झाँकने
और जल में बिंब अपना ताकने
कुछ कुदकते थे कुएँ की मेंड़ पर
कुछ लगे आपस की छेड़मछेड़ पर
नाचने और कूदने में मस्त थे
गिर गए उनमें से दो जो स्वस्थ थे
खिलखिलाकर सभी टर्राने लगे
जो गिरे थे डर से थर्राने लगे
थीं निकल आने की उनकी ख़्वाहिशें
कुआँ गहरा था न थीं गुजाइशें
सतह चिकनी सीढ़ियाँ भी थीं नहीं
जो गिरा वो कभी निकला ही नहीं
कुआँ तत्पर था निगलने के लिए
व्यग्र थे दोनों निकलने के लिए
कोशिशें करते थे तेज़ तपाक से
किंतु गिर जाते थे वहीं छपाक से
दृश्य ऊपर का विकट घनघोर था
मेंढकों का झुंड करता शोर था
देख उन दोनों की व्याकुल बेबसी
ऊपर से एक मेंढक ने कुटिल फब्ती कसी–
अब तुम्हारी कोशिशें सब व्यर्थ हैं
टाँग लंबी हैं मगर असमर्थ हैं
कुछ समय बस चित्त को बहलाओगे
कुंएँ के मेंढक सदा कहलाओगे!
अगर जीना है तो कोशिश मत करो
और चाहो तो यूँ हीं थककर मरो
अब हमारा कथन यही परोक्ष है
आत्महत्या ही तुम्हारा मोक्ष है
सभी मेंढक मिल के चिल्लाने लगे
मौत मातम मर्सिया गाने लगे–
डूब जा, डूब जा डूब जा रे
दूर हैं ज़िंदगी के किनारे!
तुम हो मेंढक नहीं तुम हो उल्लू
डूबने को तो काफ़ी है चुल्लू!
डूबे क़िस्मत के सारे सितारे!
डूब जा, डूब जा, डूब जा रे
दूर हैं ज़िंदगी के किनारे!
दोनों डूबो जल्दी-जल्दी
इत्ती देली कैछे कल्दी?
शोर कुएँ में निराशा भर गया
एक उनमें से तड़प कर मर गया
दूसरे ने यत्न पर त्यागा नहीं
मृत्यु का भय भी उसे लागा नहीं
है निकलना मन में इतना ठान कर
साँस खींची टाँग लंबी तान कर
मोड़ कर पंजे झुका घुटनों के बल
भींच कर मुँह सँजो ली ताकत सकल
देह को स्प्रिंग सरीखा कर लिया
हौसला ख़ुद में लबालब भर लिया
एक दिव्य छलाँग मारी
आ गया, आ गया, आ गया, लो आ गया
जी छा गया
दे रहे थे जो अभी तक गालियाँ
अब बजाने लग गए वे तालियाँ
सीख जिसने दी सिमट कर रह गया
कोसने वाला भी कट कर रह गया
वो उछलना क्या था एक उड़ान थी
आत्मबल की जागती पहचान थी
गगन में गूँजा उसी का क़हक़हा
मेंढकों की भीड़ से उसने कहा–
हूँ तो बहरा किंतु सबका शुक्रिया
आपने जो काम ऊपर से किया
सुन न पाया आपकी मैं टिप्पणी
पर इशारों से मेरी हिम्मत बनी
आपके संकेत बाहर लाए हैं
जानता हूँ कैसे गाने गाएँ हैं
शीघ्र आता समझ मैं पाता अगर
लय में हिलते हाथ तो देखे मगर
आपसे ही बल मिला संबल मिला
आपकी मेहनत का मुझको फल मिला
आप सबका दिल से आभारी हूँ मैं
करूँगा सेवा ये व्रतधारी हूँ मैं
वचन सुन मेंढक सभी लज्जित हुए
हाथ जोड़े ग्लानि से मज्जित हुए
भई भूल जाना तुम हमारे पाप को
वो चतुर नक़ली बधिर बोला मैं सुन न पाया आपको!
दोस्तो तुमने सुनी ये दास्तां?
दोस्तो मन में गुनी ये दास्तां?
सीख ये पाई कि खुद गहरे बनो
हर निराशा के लिए बहरे बनो!