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Description

जीवधारा - अरुण कमल

खूब बरस रहा है पानी

जीवन रस में डूब गयी है धरती

अभी भी बादल छोप रहे हैं

अमावस्या का हाथ बँटाते

बज रही है धरती

हज़ारों तारों वाले वाद्य-सी बज रही है धरती

चारों ओर पता नहीं कितने जीव-जन्तु

बोल रहे हैं हज़ारों आवाज़ों में

कभी मद्धिम कभी मन्द्र कभी शान्त

कभी-कभी बथान में गौएँ करवट बदलती हैं 

बैल ज़ोर से छोड़ते हैं साँस

अचानक दीवार पर मलकी टॉर्च की रोशनी

कोई निकला है शायद खेत घूमने

धरती बहुत सन्तुष्ट बहुत निश्चिन्त है आज

दूध भरे थन की तरह भारी और गर्म